।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठमें जा रहे थे, वहाँ भगवान्‌के द्वारपाल जय-विजयने उन्हें भीतर जानेसे रोका । तब सनकादिने उनको तीन जन्मोंतक राक्षस होनेका शाप दे दिया । भगवान् अपने अनुचरोंद्वारा श्रेष्ठ पुरुषोंका अपमान हुआ जानकर स्वयं लक्ष्मीसहित वहाँ पधारे । उस समय भगवान्‌के दर्शनसे उनकी जो दशा हुई, वह बड़ी विलक्षण थी । भागवतकार लिखते हैं‒

तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-
किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां
संक्षोभमक्षरजुवामपि चित्ततन्वोः ॥
                                                   ( ३ । १५ । ४३)

प्रणाम करनेपर उन कमलनेत्र भगवान्‌के चरणकमलकी परागसे मिली हुई तुलसी-मंजरीकी हवाने उनके नासिका-छिद्रोंमें प्रवेशकर उन अक्षर परमात्मामें नित्य स्थित रहनेवाले ज्ञानी महात्माओंके भी चित्त और शरीरको क्षुब्ध कर दिया ।’

जिनका मन सहज विरागरूप’ था जो अक्षर परमात्मामें नित्य स्थिर रहनेवाले थे, जिन्हें दुःखदोषानुदर्शनम्’ का साधनापूर्वक वैराग्य करना नहीं पड़ता था, उन जनक और सनकादिकोंका चित्त भी भगवान्‌की ओर खिंच जाता है । वे विलक्षण प्रेमार्णव भगवान् मायिक कैसे हो सकते हैं ?

इस निर्गुण-सगुण-साकार तत्त्वकी एकता बतलानेवाले श्लोकमें अपि’ और सन्’ पदोंके दो बार देनेका यह स्वारस्य है कि निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार और सगुण-साकार वस्तुतः एक ही तत्त्व हैं । इनमें अनेकता तो साधकोंके दृष्टिभेदके ही कारण दीखती है । परमात्माका जो ध्यान, चिन्तन, धारण, भावना और ज्ञान किया जाता है, वह सब मन-बुद्धिके द्वारा ही किया जाता है और परमात्मा वस्तुतः मन-बुद्धिसे अतीत हैं । अतः वृत्तिके द्वारा जो कुछ भी निश्चित किया जाता है, उससे परमात्मा वास्तवमें परे ही रह जाते हैं । इसलिये मन-बुद्धिसे पकड़ा हुआ परमात्माका कोई भी स्वरूप वास्तविक नहीं, कल्पित ही है । यद्यपि मन-बुद्धि परमात्माके यथार्थ स्वरूपतक नहीं पहुँच पाते, तथापि परमात्मा तो सर्वातीत होते हुए साधककी कल्पनामें भी मौजूद हैं ही; क्योंकि वे देश, काल, वस्तु भाव और धारणा‒सभीमें अविच्छिन्न रूपसे सदा ही विद्यमान हैं । तथा परमात्माकी प्राप्तिके लिये साधन करनेवाले पुरुषका लक्ष्य परमात्मा होनेके कारण उनके परम भावको समझकर सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार‒किसी भी रूपकी कैसी भी भावना क्यों न की जाय, उसका भी फल परमात्माकी प्राप्ति ही होता है । अतः परमात्माकी प्राप्तिके उद्देश्यसे जो भी कुछ साधन किया जाता है उसका फल वस्तुतः सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति ही होनेके कारण सभी साधन वस्तुतः सत्य ही हैं, कल्पित नहीं । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे