।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, शनिवार
सन्त-चरण-रजका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक बात और है कि धनी आदमी दूसरेको धनी नहीं बनाना चाहता वह तो व्यापारकी बात भी दूसरेको बताना नहीं चाहता; किन्तु जो सन्त-महापुरुष हैं, उनको जो कुछ भी लाभ हुआ है, उसको वे सबको बताना चाहते हैं उनके मनमें वह सब बतानेकी बड़ी उत्कण्ठा होती है उनकी बात कोई मान लेता है तथा उसके अनुसार साधन करता है, तो वे सन्त-महात्मा बड़े खुश होते हैं और उनकी इस खुशीमें ही जीवका कल्याण भरा होता है

ऊपरकी सेवा करो, दण्डवत् करो, नमस्कार करोरज्जी उठाओ, जूठन खाओये सब फालतू बातें हैं, निकम्मी बातें हैं, अश्रद्धा पैदा करनेवाली बातें हैं, दुनियामें नास्तिकता पैदा करनेवाली बातें हैं सन्त-महात्माओंके कहे अनुसार जीवन बनाएँ, उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तोंका पालन करें; ठीक उनके अनुसार ही अपना जीवन बनाएँतो आपलोग दुनियाका उद्धार कर सकते हैं

उस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये केवल उत्कण्ठा एवं भूख होनी चाहिये जैसे बालकके दूधकी भूख होनेपर उसका प्रबन्ध होता ही है माँके दूध आये तो अन्यत्रसे प्रबन्ध होगा माँके दूधकी कमी भी हो सकती है; किन्तु भगवान् एवं सन्त-महात्माओंकी शक्ति तो अपार, अनन्त हैजिसका कोई पारावार नहीं है इसके अलावा एक और विलक्षणता है कि सन्तोंका ज्ञान जितना अधिक खर्च होगाउतना ही अधिक बढ़ता है कहा गया है

हे सरस्वती ! तेरा कोठार, भण्डार अथवा खजाना अपूर्व है, विलक्षण है दूसरा खजाना ज्यों-ज्यों खर्च करते हैं, त्यों-त्यों नाश होता है, उसमें कमी आती है पर तेरे खजानेमें खर्च करनेसे वृद्धि होती है कोई व्यक्ति दूसरेको पढ़ाता है, तो उसके ज्ञानकी वृद्धि होती है ब्रह्म विद्या तो इससे भी विलक्षण रीतिसे बढ़ती है, उमड़ पड़ती है इसलिये चरणरजका तात्पर्य उस तत्त्वको जाननेकी जिज्ञासा है

जब सन्त-चरण-रज एवं सन्त-दर्शनका भी इतना माहात्म्य है तो वे जिस चीजसे इतने महान् हुए हैं, वह चीज कितनी महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये वह चीज हम सबको मिल सकती है सन्त-महात्माओंकी लालसा रहती है, उस चीजको सबको बाँट देनेकी उस चीजको देनेकी जितनी उत्कण्ठा सन्त-महापुरुषोंमें होती है, उतनी लालसा लेनेवालेमें नहीं होती ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार बालकके प्रति माँकी जितनी उत्कण्ठा होती है, उतनी माँके प्रति बालककी नहीं होती

साधारण मनुष्यके भीतर अपने कल्याणकी उतनी चिन्ता नहीं होती, जितनी उन महापुरुषोंके भीतर उन मनुष्योंके कल्याणकी होती है महापुरुष चाहते हैं कि जल्दी-से-जल्दी और सुगमतासे इनका कल्याण हो जाय । सन्त-महापुरुषोंके भीतर तो कल्याणका खजाना भरा पड़ा है, पर सच्चे हृदयसे चाहनेवाला चाहिये भगवान्की कृपाके रहते हुए भी बिना उत्कण्ठाके, बिना लालसाके भगवान्की प्राप्ति नहीं हो सकती

आज संसारमें नास्तिकता फैल रही है लोग ईश्वरको, सन्तोंको और शास्त्रोंको नहीं मानते हैं, इसका कारण यही है कि लोग असली तत्त्वकी तरफ तो ध्यान देते नहीं और नकली बातोंका आचरण करते हैंजैसे, जूठन खा ली, चरण-धूलि ले ली इत्यादि इन ऊपरकी बातोंसे लाभ नहीं होता तो कहते हैं कि भाई ! सन्तोंकी चरण-रज और जूठनकी महिमा झूठी है; क्योंकि हमने इनका सेवन कियाकिन्तु हमें तो कोई लाभ नहीं हुआ

आजका प्रश्र थासन्त-चरण-रजका तात्पर्य क्या है ? भाई, इसका तात्पर्य तो उस तत्त्वमें है, जो उन्होंने प्राप्त कर लिया है उस तत्त्वको लेना चाहिये

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे