।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
श्रावण सोमवार-व्रत
भगवान्से सम्बन्ध


(गत ब्लॉगसे आगेका)
हाँ ! भगवान्के यहाँ सम्बन्ध हो जाता है तब तो

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गंगाजललवकणिका पीता ।
येनाकारि  मुरारेरर्चा   तस्य  यमः  किं  कुरुते  चर्चा ॥

उनकी चर्चा यमराज छोड़ देते हैं कि ये हमारे नहीं हैं । उधरके भागके हैं, बाकी तो यमराज सबको ले जाय ।

काल भक्ष सबको करे  हरि  शरणे  डरपन्त ।
नव ग्रह चौसठ जोगिनी बावन वीर बजन्त ॥

‘कालो यमो दण्डधरः’ वह ले जायगा सबको । अब उसमें जाना तो पड़ेगा । कोई नहीं चाहता, पर वहाँ जा रहे हैं सब लोग । एक-एक श्वासमें कहाँ जा रहे हैं ? मौतके पास जा रहे हैं । यह श्वास खर्च होता है । मौतके पास जा रहे हैं । प्रति श्वास वहाँ जा रहे हैं, जहाँ जाना नहीं चाहते । नहीं चाहते हो तो भाई ! भगवान्को याद करो । बिना भगवान्के कोई रक्षा करनेवाला नहीं है । सब मरनेवाले हैं, वे रक्षा कैसे करेंगे ?

काठ की ओटसे काठ बचे नहीं आग लगे तब दोऊँ कू जारे ।
स्याल की ओटसे स्याल बचे नहीं सिंह पड़े तब दोऊँ कू फारे
आनकी ओटसे जीव बचे नहीं ‘रज्जब’ वेद पुराण पुकारे ॥

सब कहते हैं भैया ! दूसरोंकी सहायतासे बच नहीं सकोगे । क्योंकि बेचारे वे सब मायाबस कालके कलेवा हैं । उनका सहारा लो तो वह भी जा रहा है । तुम्हारेको कैसे बचायेगा ? बचता वही है ।

काल डरे अण घड़ सूं भाई ता सूं संतां सुरत लगाई ।
ता मूरत पर राम दास बार बार बलि जाय काल डरे अणघड़ सूं भाई ॥

वह परमात्मा अनघड़ है । ‘अजातु न मातु न तातु निराकारं’ वह पैदा किया हुआ नहीं है, जाति नहीं है उसके, न माँ है, न बाप हैऐसा है । वह रहेगा एक और तो सब चले जायेंगे इस वास्ते उसका आश्रय लो । उसके आश्रयका सुगम-से-सुगम उपाय ठाकुरजी अवतार लेकर कर देते हैं ।

अब तुम जो कुछ करो तो हमारे साथ करो । राग करो, चाहे द्वेष करो । वैर करो, विरोध करो, लोभ करो, चाहे चिन्ता करो । मैया यशोदाके बड़ी चिन्ता लगी कि ‘लालाके क्या हो गया ?’ दाऊ भैयाको कहती है‘तू निगाह रखा कर ।’ ‘यह खेलनेको जाता है तो चंचल बहुत है यह ।’ वह दाऊ आकर कहता है‘मैया ! क्या करूँ ?’ यह यमुनामें चला जात है । पानीमें कहीं डूब जायगा । खेलता-खेलता कहीं जाकर बिलमें हाथ दे देता है । साँप काट जाय तो ! दाऊ दादा निगाह बहुत रखते हैं फिर भी वह तो चंचल बहुत है । अब दाऊ दादा, रोहिणी और यशोदा मैया, सब मिलकर भी रक्षा नहीं कर पाते । इतना चंचल है । बालमुकुन्द है यह मन है आपके पास । यह चंचल हो तो देखोये बालमुकुन्द खेल कर रहे हैं । ‘अरे ! लाला ! क्या करता है ?’ ‘खेल करता है, बालमुकुन्द है ।’ ऐसा मान लो तो फिर मनको जावे तो जाने दो । ‘अरे लाला ! ऐसे मत करो ।’ वो तो कहे‘खेलेंगे ।’ ‘अच्छी बात है, खेलो ।’ जहाँ भगवान्को समझा, कि मनकी सब उछल-कूद मिट जायगी असली तत्त्वको समझ गये न !

भगवान् ही तो हैं उसके भीतर भी । ऊपरसे कहते हैं मन है, इन्द्रियाँ हैं, पदार्थ हैं, भोग हैं, विषय हैं । अरे भैया ! भीतर वह एक ही हैं । वह है, उसे मान लो । चाहे तो भगवान्का मानकर भजन कर लो । चाहे संसारमें भगवान्को मानकर भजन कर लो । आपकी मर्जी आवे सो करो । दोनोंका टोटल एक ही निकलेगा । हमारे प्रभु ही तो हैं । ‘अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥’ इस वास्ते ‘तस्मिन्नेव करणीयम् ।’ केवल आनन्द-ही-आनन्द !

नारायण !    नारायण !!     नारायण !!!

‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे