।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
एकादशी-व्रत कल है (सबका)
प्रवचन‒५


उत्पन्न होनेवाली प्रत्येक वस्तुके मूलमें उसका कोई कारण होता है । इस दृष्टिसे सम्पूर्ण सृष्टिका कोई एक मूल कारण है । परम्परासे विचार करें तो उत्पत्तिमात्रका कारण कोई एक अनुत्पन्न तत्त्व है । सम्पूर्ण संसारका जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान किसी प्रकाशमें होता है । जैसे नेत्रोंसे जो कुछ भी दीखता है, वह प्रकाशमें ही दीखता है, ऐसे ही सम्पूर्ण सृष्टिका कोई प्रकाशक है, जिसके प्रकाशमें सृष्टिका ज्ञान होता है । तात्पर्य यह कि जिससे संसार उत्पन्न होता है और जिसके प्रकाशसे संसार प्रकाशित होता है, वह एक अनुत्पन्न और सर्वप्रकाशक तत्त्व (परमात्मा) है । उस तत्त्वका अनुभव करना ही साधकका एकमात्र उद्देश्य है ।

उत्पन्न होनेवाले और प्रकाशित होनेवाले जड़ पदार्थोमें ममता-आसक्ति करनेसे, उनका आश्रय लेनेसे ही मनुष्य दुःख पाता है । यदि मनुष्य उत्पन्न होनेवाले पदार्थोंमें ममता-आसक्ति न करे, उनका आश्रय न ले तो अनुत्पन्न परमात्मतत्त्वमें उसकी स्वतः स्थिति हो जायगी ।

वास्तवमें अनुत्पन्न तत्त्वमें मनुष्यमात्रकी स्वतःसिद्ध स्थिति है । कार्यमात्र कारणमें रहता है । कार्यके बिना कारण रह सकता है, पर कारणके बिना कार्य नहीं रह सकता । अतएव परमात्मतत्त्व संसारके होनेपर भी रहता है और न होनेपर भी रहता है; क्योंकि उसकी स्वतन्त्र सत्ता है । परंतु उत्पन्न और नष्ट होनेवाला संसार परमात्मतत्त्वकी सत्तापर ही टिका हुआ है अर्थात् उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस संसारसे यदि हम अपना कोई सम्बन्ध न मानें, इसमें तादाक्य-ममता-कामना न करें तो हमें परमात्म-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जायगा । अनुभव होनेपर फिर दुःख, चिन्ता, भय, शोक, सन्ताप आदि कुछ नहीं रहेंगे; क्योंकि ये (दुःख आदि) परमात्मतत्त्वमें नहीं है ।

भगवान् कहते हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।’ (गीता १५ । ७) अर्थात् इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है । वस्तुतः उत्पन्न और नष्ट होनेवाले संसारको पकड़नेके कारण ही यह ‘अंश’ कहलाता है । वस्तुतः यह अंश नहीं है । जैसे पिताके पास अरबों-खरबों रुपये है और पुत्र उसमेंसे एक लाख रुपये लेकर उन्हें अपना मान ले तो वह अपनेको उन एक लाख रुपयोंका मालिक समझता है, पर वास्तवमें वह उनका गुलाम बन जाता है । यदि वह एक लाख रुपयोंको अपना न माने तो वह स्वतः-स्वाभाविक अरबों-खरबों रुपयोंका मालिक है‒पिताकी पूरी सम्पत्तिका अधिकारी है । ऐसे ही उत्पन्न होनेवाली वस्तुका छोटा-सा टुकड़ा लेकर जीव उसमें फँस जाता है और दुःख पाता है । यदि वह ऐसा न करे तो आनन्दके समुद्रमें नित्य मग्न रहे । परंतु परमात्मासे विमुख होकर वह मुफ्तमें प्यासा मरता है‒

आनँद   सिंधु   मध्य तव बासा ।
बिनु जाने कस मरसि पियासा ॥
                                   (विनय-पत्रिका १३६ । २)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे