।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, रविवार
प्रवचन‒६


(गत ब्लॉगसे आगेका)
विचार करना चाहिये कि अबतक जो धन कमाया है, मान-बड़ाई प्राप्त की है, यदि आज मर जायँ तो वह क्या काम आयेगी ? केवल अपना अमूल्य समय ही नष्ट किया । इसलिये अब चेत होना चाहिये । संसारका जो अनन्त अपार ऐश्वर्यशाली मालिक (भगवान्‌) हैं, उनसे प्रेम करेंगे तो वे भी हमसे वैसे ही प्रेम करनेको तैयार हैं‒‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।’ (गीता ४ । ११) । रुपयोंके लिये हम कितना ही झूठ, कपट, बेईमानी आदि करें; पर जाते समय रुपये हमसे सम्मति भी नहीं लेते और चुपचाप खिसक जाते है । उन्हें दया ही नहीं आती कि इसने मेरे लिये कितना झूठ, कपट, बेईमानी, अन्याय आदि पाप किये है तो कम-से-कम जाते समय इसकी सम्मति तो ले लें । जो हमारा कोई आदर नहीं करते, उनके हम पीछे पड़े है और जो हमारा आदर करता है, हमसे स्नेह, प्यार करता है, उधर जाते ही नहीं ! भगवान् हमारा कितना ध्यान रखते है । हमारा पालन-पोषण करते है और जीवन-निर्वाहका सब प्रबन्ध करते है, चाहे हम उन्हें मानें या न मानें । वे तो प्राणिमात्रके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) । इसलिये आज ही निश्चय कर लें कि अब एक भगवान्की तरफ ही चलना है, उन्हींकी खोज करनी है । फिर कल्याणमें सन्देह नहीं । एकमात्र भगवान्की तरफ चलनेपर ये जितने बड़े-बड़े वैभव हैं, वे हमारी सेवा करनेके लिये तैयार हो जायँगे । बड़े-बड़े राजा-महाराजा और देवता भी भगवद्भक्तके दास होते है और उसके दर्शनसे अहोभाग्य मानते है । वैसा हम सभी हो सकते है । संसारका वैभव इकट्ठा करनेमें तो कोई स्वतन्त्र नहीं है, पर भगवान्को प्राप्त करनेमें हम सब स्वतन्त्र है । आश्चर्यकी बात है कि स्वतन्त्रतासे तो विमुख हो रहे है और परतन्त्रताको दौड़-दौड़कर ले रहे है ! इसलिये जो इस समस्त संसारका मालिक है, इसका उत्पादक, प्रकाशक और आधार है; जिसके एक अंशमें यह सारी सृष्टि स्थित है, उन अपने परमप्रियतम भगवान्से ही सम्बन्ध जोड़ लें । उन्हें चाहे माँ बना लें, चाहे पिता बना लें, चाहे पुत्र बना लें, चाहे भाई बना लें, चाहे मित्र बना लें और चाहे अर्जुनके समान सारथि बना लें, वे सब कुछ बननेको तैयार हैं । अर्जुन उनसे कहते हैं कि मेरा रथ दोनों सेनाओंके बीच खड़ा करो तो वे वैसा ही कर देते है । कितनी विचित्र बात है ! इस प्रकार आज्ञाका पालन तो आजकल बेटा भी नहीं करता । ऐसे अपने प्यारे प्रभुको छोड़कर निष्ठुर संसारकी तरफ चलना कहाँकी बुद्धिमानी है ?

अहो बकी यं स्तनकालकूटं   जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥
                                           (श्रीमद्भा ३ । २ । २३)

‘अहो ! इस पापिनी पूतनाने जिसे मार डालनेकी इच्छासे अपने स्तनोंपर लगाया हुआ कालकूट विष पिलाकर भी वह गति प्राप्त की, जो धात्रीको मिलनी चाहिये, उसके अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरणमें जायँ !
नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे