।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
दसवाँ अध्याय

मनुष्यके पास चिन्तन करनेकी जो शक्ति है, उसको भगवान्के चिन्तनमें ही लगाना चाहिये ।

संसारमें जिस-किसीमें, जहाँ-कहीं विलक्षणता, विशेषता, महत्ता, अलौकिकता, सुन्दरता आदि दीखता है, उसमें मन खिंचता है, वह विलक्षणता आदि सब वास्तवमें भगवान्की ही है । अतः वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये, उस वस्तु, व्यक्ति आदिका नहीं । यही विभूतियोंके वर्णनका तात्पर्य है ।

ग्यारहवाँ अध्याय

अर्जुनने भगवान्‌की कृपासे जिस दिव्य विश्वरूपके दर्शन किये, उसको तो हरेक मनुष्य नहीं देख सकता; परन्तु आदि-अवताररूपसे प्रकट हुए इस संसारको श्रद्धापूर्वक भगवान्का रूप मानकर तो हरेक मनुष्य विश्वरूपके दर्शन कर सकता है ।

अर्जुनने विश्वरूप दिखानेके लिये भगवान्से नम्रतापूर्वक प्रार्थना की तो भगवान्ने दिव्यनेत्र प्रदान करके अर्जुनको अपना दिव्य विश्वरूप दिखा दिया । उसमें अर्जुनने भगवान्के अनेक मुख, नेत्र, हाथ आदि देखे; ब्रह्मा, विष्णु और शंकरको देखा; देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों, सर्पों आदिको देखा । उन्होंने विश्वरूपके सौम्य, उग्र, अत्युग्र आदि कई स्तर देखे । इस दिव्य विश्वरूपको हम सब नहीं देख सकते, पर नेत्रोंसे दीखनेवाले इस संसारको भगवान्का स्वरूप मानकर अपना उद्धार तो हम कर ही सकते हैं । कारण कि यह संसार भगवान्से ही प्रकट हुआ है, भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं ।

बारहवाँ अध्याय

भक्त भगवान्का अत्यन्त प्यारा होता है; क्योंकि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान्‌के अर्पण कर देता है ।

जो परम श्रद्धापूर्वक अपने मनको भगवान्में लगाते है, वे भक्त सर्वश्रेष्ठ हैं । भगवान्के परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मोंको भगवानके अर्पण करके अनन्यभावसे भगवान्की उपासना करते हैं, भगवान् स्वयं उनका संसार-सागरसे शीघ्र उद्धार करनेवाले बन जाते हैं । जो अपने मन-बुद्धिको भगवान्में लगा देता है, वह भगवान्में ही निवास करता है । जिनका प्राणिमात्रके साथ मित्रता एवं करुणाका बर्ताव है, जो अहंता-ममतासे रहित है, जिनसे कोई भी प्राणी उद्विग्न नहीं होता तथा जो स्वयं किसी प्राणीसे उद्विग्न नहीं होते, जो नये कर्माके आरम्भोंके त्यागी हैं, जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर हर्षित एवं उद्विग्न नहीं होते, जो मान-अपमान आदिमें सम रहते हैं, जो जिस-किसी भी परिस्थितिमें निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं, वे भक्त भगवान्को प्यारे हैं । अगर मनुष्य भगवान्के ही होकर रहें, भगवान्में ही अपनापन रखें, तो सभी भगवान्के प्यारे बन सकते हैं । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे