(गत ब्लॉगसे आगेका)
दसवाँ अध्याय
मनुष्यके पास चिन्तन करनेकी जो शक्ति है, उसको भगवान्के चिन्तनमें ही लगाना चाहिये ।
संसारमें जिस-किसीमें, जहाँ-कहीं विलक्षणता, विशेषता, महत्ता,
अलौकिकता, सुन्दरता आदि दीखता है, उसमें मन खिंचता है, वह विलक्षणता आदि सब वास्तवमें भगवान्की ही है । अतः वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये,
उस वस्तु, व्यक्ति आदिका नहीं । यही विभूतियोंके वर्णनका तात्पर्य है ।
ग्यारहवाँ अध्याय
अर्जुनने भगवान्की कृपासे जिस दिव्य विश्वरूपके दर्शन किये, उसको तो हरेक मनुष्य
नहीं देख सकता; परन्तु आदि-अवताररूपसे प्रकट
हुए इस संसारको श्रद्धापूर्वक भगवान्का रूप मानकर तो हरेक मनुष्य
विश्वरूपके दर्शन कर सकता है ।
अर्जुनने विश्वरूप दिखानेके लिये भगवान्से नम्रतापूर्वक प्रार्थना की तो भगवान्ने
दिव्यनेत्र प्रदान करके अर्जुनको अपना दिव्य विश्वरूप दिखा दिया । उसमें अर्जुनने भगवान्के अनेक मुख, नेत्र, हाथ आदि देखे;
ब्रह्मा, विष्णु और शंकरको देखा; देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों, सर्पों
आदिको देखा । उन्होंने विश्वरूपके सौम्य, उग्र, अत्युग्र आदि कई स्तर देखे । इस दिव्य विश्वरूपको हम सब नहीं देख सकते,
पर नेत्रोंसे दीखनेवाले इस संसारको भगवान्का स्वरूप
मानकर अपना उद्धार तो हम कर ही सकते हैं । कारण कि यह संसार भगवान्से ही प्रकट हुआ है, भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं ।
बारहवाँ अध्याय
भक्त भगवान्का अत्यन्त प्यारा होता है; क्योंकि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान्के अर्पण कर देता है ।
जो परम श्रद्धापूर्वक अपने मनको भगवान्में लगाते है, वे भक्त सर्वश्रेष्ठ हैं ।
भगवान्के परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मोंको भगवानके अर्पण
करके अनन्यभावसे भगवान्की उपासना करते हैं, भगवान् स्वयं उनका संसार-सागरसे शीघ्र उद्धार करनेवाले
बन जाते हैं । जो अपने मन-बुद्धिको भगवान्में लगा देता है, वह भगवान्में
ही निवास करता है । जिनका प्राणिमात्रके साथ मित्रता एवं करुणाका बर्ताव है,
जो अहंता-ममतासे रहित है, जिनसे कोई भी प्राणी उद्विग्न नहीं होता तथा जो स्वयं किसी प्राणीसे उद्विग्न
नहीं होते, जो नये कर्माके आरम्भोंके त्यागी हैं, जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर हर्षित एवं
उद्विग्न नहीं होते, जो मान-अपमान आदिमें
सम रहते हैं, जो जिस-किसी भी परिस्थितिमें
निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं, वे भक्त भगवान्को प्यारे हैं । अगर मनुष्य भगवान्के ही होकर रहें, भगवान्में ही अपनापन रखें, तो सभी भगवान्के प्यारे बन सकते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे |