।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
पन्द्रहवाँ अध्याय

इस संसारका मूल आधार और इस संसारमें अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही हैइसको दृढ़तापूर्वक मान लेनेसे मनुष्य सर्ववित् हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है ।

जिससे यह संसार अनादिकालसे चला आ रहा है और जिसको प्राप्त होनेपर यह जीव फिर लौटकर संसारमें नहीं आता, उस परमात्माकी खोज करनी चाहिये । ज्ञान-नेत्रवाले साधक अपने-आपमें उस परमात्माका अनुभव कर लेते है । वह परमात्मा ही सूर्य, चन्द्रमा और अग्निमें तेजरूपसे रहकर संसारमें प्रकाश करता है । वही पृथ्वीमें प्रवेश करके पृथ्वीको धारण करता है । वही रसमय चन्द्रमा होकर पेड़, पौधे, लता आदिको पुष्ट करता है । वही जठराग्नि बनकर प्राणियोंके द्वारा खाये गये अन्नको पचाता है । वही सबके हृदयमें रहनेवाला, वेदोंको बनानेवाला, वेदोंको जाननेवाला और वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य है । वह सम्पूर्ण संसारका पालन-पोषण करता है । वह नाशवान् संसारसे अतीत और अविनाशी जीवात्मासे उत्तम है । वही लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है । उसको सर्वश्रेष्ठ मानकर अनन्यभावसे उसका भजन करना चाहिये ।

सोलहवाँ अध्याय

दुर्गुण-दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाता है । अतः मनुष्यको सद्गुण-सदाचारोंको धारण करके संसारके बन्धनसे, जन्म-मरणके चक्करसे रहित हो जाना चाहिये ।

जो दम्भ, दर्प, अभिमान, काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी-सम्पत्तिके गुणोंका त्याग करके अभय, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, दया, यज्ञ, दान, तप आदि दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको धारण करते हैं, वे संसारके बन्धनसे रहित हो जाते हैं । परन्तु जो केवल दुर्गुण-दुराचारोंका, काम, क्रोध, लोभ, चिन्ता, अहंकार आदिका आश्रय रखते हैं, उनमें ही रचे-पचे रहते हैं, ऐसे वे आसुरी-सम्पदावाले मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाते हैं ।

सत्रहवाँ अध्याय

शास्त्रविधिको जाननेवाले अथवा न जाननेवाले मनुष्योंको चाहिये कि वे श्रद्धापूर्वक जो कुछ शुभ कार्य करते हैं, उस कार्यको भगवान्को याद करके, भगवन्नामका उच्चारण करके आरम्भ करें ।

जो शास्त्रविधिको तो नहीं जानते, पर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करते है, उनकी श्रद्धा (निष्ठा, स्थिति) तीन प्रकारकी होती हैंसात्त्विकी, राजसी और तामसी । श्रद्धाके अनुसार ही उनके द्वारा पूजे जानेवाले देवता भी तीन तरहके होते हैं । जो यजन-पूजन नहीं करते, उनकी श्रद्धाकी पहचान आहारसे हो जाती है, क्योंकि आहार (भोजन) तो सभी करते ही हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे