।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७२, रविवार
एकादशी-व्रत कल है
गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
अठारहवाँ अध्याय

मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये उनकी रुचि, योग्यता और श्रद्धाके अनुसार तीन साधन बताये गये हैंकर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग (शरणागति) । इनमेंसे किसी भी एक साधनमें मनुष्य लग जाय तो उसका उद्धार हो जाता है ।

जो मनुष्य यज्ञ, तप और दान तथा नियत कर्तव्य-कर्मोंको आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके करता है एवं जो कुशल-अकुशल कर्मोंमें राग-द्वेष नहीं करता, वही वास्तवमें त्यागी है । नियत कर्मोंको करते हुए भी उसको पाप नहीं लगता और उसको कहीं भी कर्म-फल प्राप्त नहीं होता । उसके सम्पूर्ण संशय-सन्देह मिट जाते है और वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है । यह कर्मयोग है ।

जो मनुष्य सात्त्विक ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धृति और सुखको धारण करके कर्तृत्व-भोकृत्वसे रहित हो जाता है, वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे, तो भी उसको पाप नहीं लगता । अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर उसको पराभक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और उससे वह परमात्म-तत्त्वको यथार्थ जानकर उसमें प्रविष्ट हो जाता है । यह ज्ञानयोग है ।

मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर सर्म्ण कर्तव्य-कर्मोंको सदा सांगोपांग करता हुआ भी भगवत्कृपासे अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य भगवान्के परायण होकर सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करता है, वह भगवत्कृपासे सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंसे तर जाता है । जो अपनेसहित शरीर-मन-इन्द्रियोंको भगवान्में ही लगा देता है, वह भगवान्को ही प्राप्त होता है । जो सम्पूर्ण धर्मोंके आश्रयका त्याग करके अनन्यभावसे केवल भगवान्के ही शरण हो जाता है, उसको भगवान् सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं । यह भक्तियोग है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे