।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
अभिमान और अहंकारका त्याग सम्भव है


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् सोलहवें अध्यायमें कहते हैं

दम्भो दपोंऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञान चाभिजातस्थ  पार्थ संपदमासुरीम् ॥
                                           (गीता १६ । ४)

ये अभिमान और अहंकार आदि आसुरी सम्पदाको प्राप्त पुरुषके लक्षण हैं । फिर कहते हैं

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।

दैवी सम्पदा मुक्ति देनेवाली है और आसुरी सम्पदा बाँधनेवाली है । अतः धन, विद्या, बुद्धि, बल और पदका अभिमान न करके दूसरोंकी सेवा करो । और पिता, पुत्र, पति आदि जो भी आप हैं, अपना कर्त्तव्यपालन नाटककी तरह बढ़िया-से-बढ़िया करो । स्वाँगको बिगाड़ना नहीं है और न उसका अभिमान करना है, अपितु जिन्होंने आपको बुद्धिमान्, विद्वान्, धनवान्, बलवान् बनाया अर्थात् जिन मूर्खों, निर्धनों, निर्बलोंके कारण आप विद्वान्, धनवान् और बलवान् बने हो उनकी सेवा करनी है । ब्राह्मण और साधु ब्राह्मणपने तथा साधुपनेके अभिमानके कारण बड़े नहीं बने, अपितु त्यागके कारण बड़े बने । आज उनमें अभिमान आ गया है इस कारण उनका तिरस्कार होने लगा । जब वे अपनें-आपको बड़ा मानने लगे तो उन्हें दुनियाने बड़ा मानना छोड़ दिया ।

श्राद्धकी ऐसी विधि आती है कि पहले ब्राह्मणको निमन्त्रण देना चाहिये । ब्राह्मण संयमपूर्वक ब्रह्मचर्यसे रहे । यजमानके यहाँ भोजन करे, उनके पितरोंका उद्धार करे । फिर अपने घर आकर गायत्री-जप करे और प्रायश्रित्त करे । यह क्या था ? यह ब्राह्मणोंका त्याग था । लोगोंको दीखता था कि ब्राह्मण दक्षिणा लेते हैं, अन्न खाते हैं । परन्तु था उलटा । वे लेते थे थोड़ा और देते थे ज्यादा । लेते थे भौतिक चीज और देते थे आध्यात्मिक । इसलिये उनकी महिमा हुई । ऐसे ही साधु निर्वाहमात्रकी भिक्षा लेकर आध्यात्मिक ज्ञान तथा ईश्वर-तत्त्व देते थे । दूसरोंका उद्धार करते थे । इसलिये बड़े हुए । दाता हुए । केवल ब्राह्मणके घर जन्म लेनेसे या साधु बाबाका वेश लेनेसे बड़े नहीं बनते । इनमें अभिमान न आ जाय । इसलिये इनकी जीविका गृहस्थोंके आधीन रखी । साधुको भिक्षाके लिये गृहस्थीके सामने हाथ पसारना ही पड़ेगा । उसमें गृहस्थी भाईका हाथ ऊपर और साधुका नीचे रहेगा । यह भगवान्ने सबका सम्बन्ध जोड़ रखा है । अपनी-अपनी जगहपर रहते हुए अपने कर्त्तव्यका पालन करोगे तो संसिद्धिको प्राप्त हो जाओगे ।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
                                              (गीता १८ । ४५)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे