।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
अभिमान और अहंकारका त्याग सम्भव है


(गत ब्लॉगसे आगेका)
ब्राह्मण प्रतिग्रह (दान) लेनेसे दोषी होता है यह कायदा नहीं है । यदि ब्राह्मण यजमानके हितके लिये, उसके उद्धारके लिये लेता है तो वह ऋणी तथा दोषी नहीं होता । परंतु यदि वह अपने स्वादके लिये, अपने सुखके लिये और धनी बननेके लिये लेता है तो वह दोषी होता है । यदि ब्राह्मण उनके उद्धारके लिये लेता है तो वह वास्तवमें यजमानसे लेता नहीं, उसे देता है । इसी प्रकार यदि आप नाम-कीर्तिके लिये दान-पुण्य करते हो तो वह देना भी लेना है । जबतक इस प्रकारकी आपकी नीयत है तबतक आप दाता नहीं हो सकते ।

दूसरी बात है कि यदि आपके पास धन, विद्या आदि है और उसे आप दूसरोंको देते हैं तो यह कोई ऊँचे दर्जेकी चीज नहीं है । यह तो इन्कमटैक्स चुकाना है । उसमें यदि आप बड़प्पन या अहंकार करते हैं तो यह आपकी गलती है । अहंकार करना तो जैसे अभी कुछ समय पहले कहा था आसुरी सम्पदाका लक्षण है और आसुरी सम्पदा बाँधनेवाली है । अतः हमें इस आसुरी सम्पदासे ऊपर उठना है । अभिमान वस्तुओं तथा पदार्थों आदिको लेकर होता है और अहंकार शरीरको लेकर स्वयंमें होता है । अतः हमें अहंकार तथा अभिमानका त्याग करना है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!
‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे

शान्तिका मूल-मन्त्र‒“करनेमें सावधानी होनेमें प्रसन्नता”

जिसकी सेवा करते हो, उससे अपनापन हटा लो अथवा जिसको अपना नहीं मानते, उसकी सेवा करो‒दोनोंका फल बराबर है ।

सत्संग मिलनेके समान कोई लाभ नहीं है । परन्तु असली सत्संग मिलना कठिन है । एकान्तमें भजन करनेकी अपेक्षा सत्संगसे, वास्तविक तत्त्वका विवेचन करनेवाली पुस्तकोंसे बहुत लाभ होता है । असली सत्संग है‒भगवत्प्राप्त महापुरुषोंका संग अथवा एक भगवान्‌न्में प्रियता । सत्संगसे तत्काल लाभ होता है । सत्संगकी महिमा मैं कह नहीं सकता । जैसे बालक कब बड़ा हो गया‒इसका पता नहीं लगता, ऐसे ही सत्संगमें बैठे-बैठे कितना लाभ होता है‒इसका पता नहीं लगता ।

संसार प्रतीतिमात्र है, है नहीं । इसको ‘है’ मानना अनर्थकारक है, जिससे भोग तथा संग्रहकी रुचि पैदा होती है । ‘नहीं’ को स्थायी माननेसे ‘है’ दीखता नहीं । है’ ही परमात्मा है । संसार है ही नहीं, केवल मृगतृष्णाकी तरह प्रतीति है ।

संसार बाधक नहीं है, प्रत्युत उससे सुख लेनेकी इच्छा बाधक है । सुख चाहनेवाला दुःखसे कभी बच सकता ही नहीं । शरीर, रुपये, घर, कुटुम्बी आदि कुछ भी बाधक नहीं हैं । बाधक है मैं सुख ले लूँ’‒यह भाव । यह राक्षसपना है । संसारकी इच्छामात्र बाधक है, चाहे वह अच्छी हो या बूरी ।