।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद अमावस्या, वि.सं.२०७२, रविवार
प्रवचन‒९


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जहाँ साधक ‘मैं हूँ’ मानता है, वहाँ भगवान् उससे भी अधिक सूक्ष्मरूपसे विराजमान है । ‘मैं हूँ’ क्षेत्रज्ञ अर्थात् क्षेत्र (शरीर) को जाननेवाला (गीता १३ । १) और भगवान् कहते है कि सब क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ‒‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।’ (गीता १३ । २) । तात्पर्य यह कि क्षेत्रज्ञ तो केवल एक शरीरके साथ सम्बन्ध रखनेवाला है पर क्षेत्रज्ञमें जो परमात्मा है, उनका किसी शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं है और सबमें परिपूर्ण होनेके कारण उनका सबसे सम्बन्ध है ! वे ही वास्तवमें अपने है । हम जिस शरीरको अपना मानते है, वह कभी अपना था नहीं, है नहीं और रहेगा नहीं । पर परमात्मा अपने थे, अपने है और अपने रहेंगे । वे अपनेसे कभी विमुख नहीं हुए । हम ही उनसे विमुख हुए है । वे परमात्मा बड़े मधुर है, बड़े प्रिय है और वे अपनेमें हैं‒ऐसा माननेपर वे याद किये बिना ही याद रहेंगे, भजन किये बिना ही उनका भजन होगा, चिन्तन किये बिना ही उनका चिन्तन होगा । उनमें स्वतः ऐसी प्रियता होगी, जैसी अपने शरीरमें और अपने जीते रहनेमें भी नहीं है ।

‘मैं हूँ’ में जो हूँहै, वह शरीरको लेकर है । उस हूँमें ‘है’ रूपसे परमात्मा ही है । तू है, यह है, वह है‒सब जगह परमात्मा ही ‘है’-रूपसे विद्यमान है । जड़ और चेतनमें, स्थावर और जंगममें, उत्पत्ति, स्थिति और विनाशमें, भाव और अभावमें‒सब जगह वे परमात्मा ज्यों-के-त्यों है । साधक यदि ‘हूँ’ का त्याग कर दे अर्थात् मैं’ (अहंता) को मिटाकर सामान्य सत्तामें स्थित हो जाय (जो वास्तवमें है) और हूँरूपसे विद्यमान परमात्माको अपना मान ले, तो फिर उनकी विस्मृति नहीं होगी । जप-ध्यानादि भी स्वतः होंगे, करने नहीं पड़ेंगे । अपनेमें प्रभु स्वतः है, बनावटी नहीं है । जो अपनेमें स्वतः है, उसकी ओर दृष्टि करनेमें देरी किस बातकी ? अपनेमें प्रभुको देखनेवाला कौन है ? जो क्षेत्रको देखता था, वही अपनेमें प्रभुको देखता है । जिसका अंश है, उसीको देखता है । अपने अंशीको देखते ही वह अंशीमें मिल जाता है ।

अंशीमें मिलनेके दो तरीके है‒अभेदपूर्वक और अभिन्नता-पूर्वक । पहले अभेद होता है, फिर अभिन्नता होती है । अभेदमें भेदकी कुछ गन्ध रहती है, पर अभिन्नतामें यह नहीं रहती । अभिन्नता वास्तविक है । अभिन्नता भेद-उपासनामें भी होती है और अभेद-उपासनामें भी होती है । भेदमें अभिन्नता ऐसे होती है कि जैसे कहींका लड़का और कहींकी लड़की गृहस्थमें आकर एक हो जाते है तो भिन्न-भिन्न होनेपर भी उनमें अभिन्नता हो जाती है । इसी प्रकार दो मित्रोंमें भी अभिन्नता होती है । भिन्न-भिन्न होते हुए भी अभिन्न हो जाना ‘ज्ञान’ है और अभिन्न होते हुए भी भिन्न-भिन्न हो जाना ‘भक्ति’ है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे