।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, सोमवार
प्रवचन‒९


(गत ब्लॉगसे आगेका)
स्वयं (स्वरूप) परमात्मासे अभिन्न है, परंतु संसार और शरीरसे सम्बन्ध माननेके कारण परमात्मासे भिन्नता प्रतीत होती है । अतः संसार और शरीरसे विमुख हो जायँ कि यहमैंनहीं औरमेरानहीं; औरमैंप्रभुका हूँ और प्रभु ‘मेरे’ हैं‒इस प्रकार परमात्माके सम्मुख हो जायँ । सम्मुख होते ही उनसे अभिन्नता हो जाती है । अभिन्नताके बाद फिर बड़ा विचित्र आनन्द है । वह (द्वैत) अद्वैतसे भी सुन्दर है‒‘भक्त्यर्थं कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्’ । वहाँ केवल आनन्द-ही-आनन्द है, मस्ती-ही-मस्ती है । उसे प्राप्त करना चाहें तो अभी कर सकते है । प्राप्त क्या करना है, वह तो प्राप्त ही है । केवल दृष्टि उधर करनी है । इतनी सीधी, सरल और श्रेष्ठ बात कोई नहीं है । गीतामें भगवान् कहते हैं‒

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो  मां  तत्त्वतो  ज्ञात्वा   विशते  तदनन्तरम् ॥
                                                        (१८ । ५५)

‘पराभक्तिके द्वारा वह मुझ परमात्माको, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्वसे जान लेता है तथा उस भक्तिसे मुझे तत्त्वसे जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ।’

‘विशते तदनन्तरम्’ पदोंका यह अभिप्राय है कि भगवान्को तत्त्वसे जानने अर्थात् उनका अनुभव होनेके बाद फिर उनसे अभिन्न होनेमें एक क्षणका भी अन्तर नहीं पड़ता । शरीर-संसारसे माना हुआ सम्बन्ध छूटते ही ज्यों-के-त्यों विद्यमान परमात्माका अनुभव हो जाता है । उनका अनुभव होते ही तत्काल भिन्नता मिट जाती है । वास्तवमें भिन्नता है ही नहीं, तभी वह मिटती है । यदि वास्तवमें भिन्नता होती, तो उस (सत्‌) का अभाव कैसे होता ?

असत् (संसार) में जो आकर्षण या प्रियता है, वह ‘आसक्ति’ कहलाती है । वही आकर्षण भगवान्में हो जाय, तो उसे ‘भक्ति’ या ‘प्रेम’ कहते हैं । धनमें, भोगोंमें, परिवार आदिमें जो हमारा खिंचाव है, वह खिंचाव भगवान्की तरफ होते ही भक्ति हो जाती है । वास्तवमें अपनेमें भक्तिका संस्कार‒भगवान्का खिंचाव स्वतः है, पर असत्से सम्बन्ध जोड़नेसे असत्की ओर खिंचाव हो गया । लक्ष्य (परमात्मा) की प्राप्ति होनेपर असत्का खिंचाव सर्वथा मिट जाता है ।

अब के सुलताँ फनियान समान हैं,
बाँधत पाग अटब्बर की ।
तजि एकहिं दूसरे को जो भजै,
कटि जीभ गिरै वा लब्बर की ॥
सरनागति ‘श्रीपति’ श्रीपतिकी,
नहिं त्रास है काहुहि जब्बर की ।
जिनको हरि की परतीति नहीं,
सो करौ मिलि आस अकब्बर की ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे