।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७२, बुधवार
हरितालिका-व्रत
प्रवचन‒१०


(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक शंका होती है कि हम पहले ही अपने दुःखसे दुःखी हैं, फिर दूसरेके दुःखसे भी दुःखी होने लगें तो हम तो हरदम रोनेमें ही रहे ! हमारा दुःख फिर कभी मिटेगा ही नहीं; क्योंकि संसारमें दुःखी तो मिलते ही रहेंगे ! इसका समाधान यह है कि जैसे हमारे ऊपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते है, वैसे ही दूसरेको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उसका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होनी चाहिये । उसका दुःख दूर करनेकी सच्ची भावना होनी चाहिये । अतः दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेका तात्पर्य उसके दुःखको दूर करनेका भाव तथा चेष्टा करनेसे है, जिससे हमें प्रसन्नता ही होगी, दुःख नहीं । दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेपर अपने पास शक्ति, योग्यता, पदार्थ आदि जो कुछ भी है, वह सब स्वतः दूसरेका दुःख दूर करनेमें लग जायगा । दुःखी व्यक्तिको सुखी बना देना तो हमारे हाथकी बात नहीं है पर उसका दुःख दूर करनेके लिये अपनी सुख-सामग्रीको उसके अर्पित कर देना हमारे हाथकी बात है । इस प्रकार सुख-सामग्रीके त्यागसे तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२)

पातञ्जलयोगदर्शन में आया है‒‘मैत्रीकरुणामुदि-तोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चि-त्तप्रसादनम् ।’ (१ । ३३) अर्थात् सुखीके साथ मैत्री, दुःखीके साथ करुणा, पुण्यात्माके साथ प्रसन्नता और पापात्माके साथ उपेक्षाकी भावना रखनेसे चित्त निर्मल होता है ।

परंतु गीताने इन चारों बातोंको दोंमें बाँट दिया है‒‘मैत्रः करुण एक च’ (१२ । १३) । तात्पर्य यह कि सुखी और पुण्यात्माको देखकर मैत्री हो एवं दुःखी और पापात्माको देखकर करुणा हो । पापात्माकी उपेक्षासे उतना लाभ नहीं होता, जितना करुणासे होता है । मैत्री और करुणाके भावसे अन्तःकरण निर्मल हो जाता है । सुखीको देखकर ईर्ष्या करनेसे और दुःखीको देखकर अभिमान करनेसे अन्तःकरण मैला हो जाता है । पापात्मासे घृणा-द्वेष करनेपर भी अन्तःकरण मैला हो जाता है । हमारे सामने चाहे जैसी परिस्थिति, अवस्था, देश, काल, व्यक्ति, वस्तु आदि आये, वह सब-की-सब परमात्माकी प्राप्तिमें साधन-सामग्री है । यदि मनुष्य उसका सदुपयोग करनेकी विद्या सीख जाय तो फिर उसका कल्याण निश्चित है ।

कैसी ही परिस्थिति क्यों न हो, उसका सदुपयोग करना चाहिये । यदि सदुपयोग करना न आये तो सत्-शास्त्रोंमें देखे, संत-महापुरुषोंसे पूछे, स्वयं विचार करे, भगवान्‌को याद करे और उनसे प्रार्थना करे तो सद्बुद्धि पैदा हो जायेगी । उसके अनुसार आचरण करनेसे उद्धार हो जायेगा । गीता हमें सिखाती है‒

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व  नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
                                                    (२ । ३८)

‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा ।’

युद्धसे भी क्रूर कर्म और क्या होगा ? पर वह भी जय-पराजय आदिमें सम होकर किया जाय, तो कल्याण करनेवाला हो जाता है । परन्तु प्रत्येक कर्म शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार होना चाहिये । प्रत्येक परिस्थितिमें हमारे सामने दो ही चीजें आती हैं‒कर्म और उसका फल । अतः प्रत्येक कर्तव्य कर्म शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितके लिये करें और फल (सुख-दुःखादि) में सम रहें । ऐसा करनेसे परमात्मामें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जायगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे