।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७२, शनिवार
लोलार्क षष्ठी-व्रत
प्रवचन‒११


(गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें तो हम मुक्त ही है, पर द्वन्द्वोंको अपना मान करके फँस जाते है‒

इच्छाद्वेषसमुत्थेन   द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥
                                        (गीता ७ । २७)

इच्छा (राग) और द्वेष, हर्ष और शोक‒इन द्वन्द्वमोहसे मोहित होकर इनसे परे उस परमात्माको नहीं जानते । ‘सर्गे यान्ति’ का मतलब‒आरम्भमें ही यह जीव मोहको प्राप्त हो जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है । बदलनेवालेमें स्थित न होकर; अपने स्वरूपमें जो कि सम्पूर्णको जानता है, स्थित हो जायँ और जाननेमें आनेवाली तथा बदलनेवाली वस्तुके साथ न बदलें अर्थात् उसके साथ अपनी एकता न मानें तो हमारी स्थिति स्वतः स्वरूपमें है । स्वतः स्वरूपमें स्थितिका नाम है‒जीवन्मुक्ति । पर स्वतः रहनेवालेके साथ न रहकर बदलनेवालेके साथ मिल जाते हैं, इसका नाम है‒बन्धन । बन्धनको हम जब चाहें तब छोड़ दें और जब चाहें तब पकड़ लें । इसमें हम पराधीन नहीं हैं, स्वाधीन हैं । बन्धन पकड़कर बन्धनमें कभी स्थित रह नहीं सकते और स्वरूपसे विमुख होकर स्वरूपसे अलग कभी रह नहीं सकते; क्योंकि बन्धन तो मिटते रहते हैं, हम नये-नये पकड़ते रहते हैं और हमारा जो स्वरूप है, वह ज्यों-का-त्यों ही रहता है, कभी बदलता नहीं । स्वरूपमें हमारी स्थिति स्वतःसिद्ध है । स्वतःसिद्ध स्थितिका आदर न करके परतः स्थितिका, जो बदलती रहती है, आदर करते हैं‒महत्त्व देते है; इसीसे जन्म-मरणमें भटकते हैं और दुःख पाते हैं ।

जब हम बदलनेवालेके साथ न रहकर, जो सम्पूर्ण बदलनेवालेको जानता है, उसमें स्थित हो जायँ तो हम अभी मुक्त हैं । मुक्तिके लिये भविष्य नहीं होगा । अमुक चीज नहीं है, अमुक अवस्था नहीं है, अमुक परिस्थिति नहीं है तो वह समय पाकर होगी । परन्तु यह समय पाकर नहीं होगा । यह समयसे अतीत है और सब समयमें है, किसी देशमें नहीं है और सम्पूर्ण देशोंमें है, किसी वस्तुमें नहीं है और सम्पूर्ण वस्तुओंमें है । देश काल, वस्तु, व्यक्तिसे सर्वथा अतीत होते हुए भी सबमें परिपूर्ण है । उसमें स्थित होना स्वरूपमें स्थित होना है ।

ज्ञानीकी भी वृत्तियाँ बदलती हैं‒‘प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।’ (गीता १४ । २२) अर्थात् तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषमें भी प्रकाश, प्रवृत्ति और मोहकी वृत्तियाँ होती हैं । बदलना इनका स्वभाव है और न बदलना हमारा स्वभाव है । उस स्वरूपमें हम स्वतः-स्वाभाविक स्थित है । केवल प्रकृतिमें स्थित नहीं होना है ।

अब कोई प्रश्र करे कि यह बात समझमें तो आती है पर टिकती नहीं । तो उसका उत्तर यह है कि वास्तवमें यह बात मिटती ही नहीं, प्रत्युत निरन्तर रहती है; क्योंकि यह बात टिकती नहीं‒इसे तो हम जानते ही है । ‘टिकती नहीं’‒यह प्रकृति है और ‘जानते है’‒यह स्वरूप है । प्रकृतिके साथ मिलें नहीं, इतनी ही बात है । वह तो मिटती ही है और स्वरूप टिकता ही है ।

यह टिकती नहीं‒इसे जाननेवाला भी मिटता है क्या ? यदि मिटता है तो जानता कौन है ? मिटनेको जाननेवाला न रहे तो मिटनेको जानेगा कौन ? प्रकृति परिवर्तनशील है । वह तो बदलेगी ही । जाग्रत् होगा, स्वप्न होगा, सुषुप्ति होगी, ठीक होगा, बेठीक होगा, अनुकूल होगा, प्रतिकूल होगा‒यह तो सदा ही होगा । पर इसे जाननेवालेमें क्या फर्क पड़ा ? हम बदलनेवालेमें स्थित न हों; बदलनेवालेकी परवाह न करें । हम अपने स्वरूपमें ही स्थित रहें । अपने स्वरूपकी परवाह करनी है, उससे च्युत नहीं होना है । यह निश्चय हम पक्का रखें । फिर इसमें गलती नहीं होगी । इसपर जितना टिक जायँ, उतना ही लाभ होगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे