।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल नवी, वि.सं.२०७२, मंगलवार

आवश्यकता और इच्छा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
उसकी प्राप्ति वह परम लाभ है कि जिसके बाद और कोई लाभ हो सकता है‒यह माननेमें भी नहीं आता । और जिसमें स्थित होकर मनुष्य गुरुतर दुःखसे भी चलायमान नहीं होता

यं लब्ध्वा चापरं लाभं   मन्यते नाधिक ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                                (गीता ६ । २२)

उसकी प्राप्ति होनेपर परम शान्ति तथा परम आनन्द ही रहता है । उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । मनुष्य इन इच्छाओंके कारण ही दुःख पाता है । ये इच्छाएँ महान् अनर्थका कारण हैं । जबतक यह पृथ्वी रहेगी, आप कितने ही विद्वान् बन जाओ, कितने ही धनवान् बन जाओ, कितने ही बलवान् हो जाओ, कितना ही आदर, मान-सम्मान मिल जाय, आपको इन्द्र और ब्रह्माका पद मिल जाय तो भी आपको शान्ति मिलेगी नहीं । यह एकदम सच्ची बात है, सबके लिये । साधु हो चाहे गृहस्थ, भाई हो या बहिन । जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी, तबतक शान्ति मिलेगी नहीं, तृप्ति होगी नहीं; क्योंकि अविनाशीकी तृप्ति विनाशी संसारसे कैसे हो जायगी ? यह असम्भव बात है । यदि आवश्यकता और इच्छाको ठीक-ठीक समझकर आवश्यकताकी पूर्ति की जाय तो सब काम ठीक हो जाय । आवश्यकताकी पूर्ति अवश्य होनेवाली है और इच्छा निश्चय ही मिटनेवाली है । जैसे बचपनमें खिलौनोंकी इच्छा थी; परन्तु अब होती है क्या ? इसी प्रकार ठीक वैराग्य होनेपर रुपयोंकी आवश्यकता रहती है क्या ? संग्रह, भोगकी इच्छा रहती है क्या ? तो पुरानी इच्छाएँ मिटती रहती हैं, परन्तु नयी जागृत होती रहती हैं । इच्छा होती है कि मोटर हो जाय । फिर मोटर रखनेको गैरेज होना चाहिये, तेल चाहिये, ट्यूब-टायर, पुर्जे चाहिये आदि । इच्छाएँ बढ़ती ही रहेंगी । ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।’ इनका अन्त तभी होगा, जब आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी अर्थात् परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी ।

सबसे पहले जितने भाई, बहिन यहाँ हैं; अपनेसे पूछें कि मैं क्या चाहता हूँ । हममेंसे बहुतोंको तो इस बातका ज्ञान ही नहीं है कि हम क्या चाहते हैं ! कोई धन चाहता है, कोई पुत्र चाहता है, कोई मान, आदर चाहता है, परन्तु जिसे कभी चाहते हैं, कभी नहीं चाहते, वह हमारी असली चाहना नहीं । हमारी चाहना तो सदा रहेगी, चाहे रात हो चाहे दिन हो, सुख हो अथवा दुःख । सम्पत्ति मिले चाहे विपत्ति मिले । वही हमारी चाह या आवश्यकता है । कामना हमारी चाह नहीं । वह तो शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, प्राणकी चाह है, हमारी नहीं है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे