।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, मंगलवार
द्वितीया-श्राद्ध
अविनाशी बीज


(गत ब्लॉगसे आगेका)
‘यह सब संसार परमात्म-तत्त्व है’पहले हम इस बातको शास्त्रोंसे समझकर मान लें, अगाड़ी परमात्मा दीखने लग जायँगे । गीताने इसीको ज्ञान कहा है । ठीक तत्त्वसे जान लेनेपर अनुभव हो जाता है । संसार दीखता है, पर वास्तवमें यह है परमात्मा ही । ऐसा बोध होनेपर वह महात्मा कहलाता है । जिसकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव हैं वह महात्मा दुर्लभ है‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥’ (गीता ७ । १९) । अब कोई कहे कि हम पहले कैसे मान लें जबतक हमारेको बिलकुल शरीर मिट्टी, मकान आदि अलग-अलग चीजें दीखती हैं ? इसको ऐसे मानें कि आदि-अन्तमें जो रहेगा, वही मध्यमें होगा और बीचमें भी वही चीज होगी । ऐसे ही संसारके आदिमें परमात्मा थे, अन्तमें परमात्मा रहेंगे, बीचमें संसाररूपसे परमात्मा ही दीख रहे हैं । तत्त्वसे देखा जाय तो परमात्माके सिवाय और क्या है ? इस संसारके स्वाँगमें आनेसे परमात्मा असली रूपमें नहीं दीखते, संसाररूप स्वाँग दीखता है ।

ध्यान देनेकी एक विचित्र बात यह है कि परमात्मा नित्य-निरन्तर रहते हैं, कभी बदलते नहीं, कभी मिटते नहीं; परन्तु संसार कभी एक रूपसे नहीं रहता । जिस दिन शरीर जन्मे, उस दिन ऐसे नहीं थे । जन्मके पाँच-दस दिनके बाद शरीरको देखा हो, दो-चार वर्षके बाद देखा हो और आज देखे तो पहचान नहीं सकते, इतना बदल जाता है । वह प्रत्येक वर्षमें बदलता है प्रत्येक महीनेमें बदलता है, प्रत्येक घण्टेमें, प्रत्येक मिनटमें, प्रत्येक सेकण्डमें बदलता है । बदलने-बदलनेका नाम ही शरीर है । संसार और कुछ नहीं है, यह बदले बिना रहता ही नहीं, परमात्मा कभी बदलते ही नहीं । यह प्रश्न है कि परमात्मा होते हुए दीखते क्यों नहीं ? वास्तवमें जिस (संसार)-को ‘है’ मानते हैं वह परमात्मा ही है, पर संसार ‘है’ रूपसे दीखता है ।

जासु सत्यता  तें  जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥

जिस (परमात्मा)-की सत्यतासे संसार सत्यकी तरह दीखता है । मूढ़ताकी सहायतासे यह सच्चा दीखता है, मूढ़ता चली जाय तो यह सच्चा नहीं दीखेगा, प्रत्युत परमात्मा ही सच्चे दीखेंगे । इस संसारमें ‘है’ रूपसे परमात्मा सच्चे हैं, संसार सच्चा नहीं है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष बदलता है जन्मता-मरता है । यह प्रत्यक्ष बात है । यह बदलता हुआ दीखनेपर भी है वही परमात्मा । ऐसा विश्वास करके भजन-स्मरण करनेसे, जप-ध्यान करनेसे, परमात्माकी तरफ सम्मुख हो जानेसे, अन्तमें वे परमात्मा ही रह जाते हैं । परमात्माको ठीक जाननेवाले ही तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त हैं जो कि परमात्मतत्त्वको जान लेते हैं । इस वास्ते ऐसा मानकर भगवान्के भजनमें निरन्तर लग जाना चाहिये । यह सार बात है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे