।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
श्रीकृष्णजन्माष्टमी-व्रत
प्रवचन‒८


(गत ब्लॉगसे आगेका)
मानी हुई परिच्छिन्नता मिटानेके लिये साधक ऐसा मान ले कि ‘मैं भगवान्का हूँ’ अथवा विवेकपूर्वक यह मान ले कि माना हुआमैंअर्थात् असत् मेरा स्वरूप नहीं है । स्वरूपके प्रकाशमें मन-बुद्धिके समान मैंपन भी प्रकाशित होता है । गहरा विचार किया जाय तो ज्ञान (बोध) वस्तुतः असत्का ही होता है, सत्का नहीं । ‘मैं हूँ’‒इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान तो रहता ही है और इसमें किसीको सन्देह नहीं होता । परन्तु अपनी सत्तामें जो असत्को मिलाया हुआ है, उस असत्का ज्ञान हमें नहीं होता । यह सिद्धान्त है कि असत्का ज्ञान असत्से अलग होनेपर होता है और सत्का ज्ञान सत्से अभिन्न होनेपर होता है; क्योंकि वास्तवमें हम असत्से भिन्न और सत्से अभिन्न है । अतएव जिस क्षण असत्का ज्ञान होता है, उसी क्षण असत्की निवृत्ति हो जाती है अर्थात् असत्से अपनी भिन्नताका बोध हो जाता है । असत्से भिन्नताका बोध होते ही सत्में हमारी स्थिति स्वतःसिद्ध है, करनी नहीं पड़ती । वह सत् ही जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंको, उनके परिवर्तनको और उनके अभावको जानता है । जाग्रत्में स्वप्न और सुषुप्तिका अभाव, स्वप्नमें जाग्रत् और सुषुप्तिका अभाव तथा सुषुप्तिमें जाग्रत् और स्वप्नका अभाव होता है । पर अपना अभाव कभी नहीं होता । सब अवस्थाओंमें अपना भाव अर्थात् अपनी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है‒यह सबका अनुभव है । साधकको चाहिये कि वह अपने अनुभवको महत्त्व दे अर्थात् अपने स्वरूपमें अटल भावसे स्थित रहे ।

आवत हर्ष न ऊपजै जावत सोक न होय ।
ऐसी रहनी जो रहै   घर में जोगी होय ॥
इस जग की  कोई वस्तु  न  हमें सुहाती ।
पल-पलमें श्यामल मूर्ति स्मरण है आती ॥
उगा सो ही आथवें    फूला सो कुम्हलाय ।
चिण्या देवल ढह पड़े जाया सो मर जाय ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे