।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७२, रविवार
बुद्धिके निश्रयकी महत्ता


दूसरे अध्यायके उनतालीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रणु ।
                                                     (गीता २ । ३९)

हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी, अब इसको कर्मयोगके विषयमें सुन । ज्ञानयोगके विषयमें अपने स्वरूपके अनुभवकी बात कही । कर्मयोगके विषयमें निश्चयकी बात कही । निश्चय क्या ? कि हमें तो परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है । ऐसा पक्का निश्चय होते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो गया बिलकुल । कैसे ? जैसे आपकी कन्या है । उसका आपके प्रति अपनापन है । उसका आपके प्रति आदरका भाव रहता है । परन्तु वाग्दान-सगाई होनेके बाद जितना अपनापन पहले माँ-बापके साथ था, उतना नहीं रहता । परंतु वह लड़का जिसे उसने देखा भी नहीं, उसका नाम सुनती है तो उसमें अपनेपनका अनुभव करती है । उसके घरको अपना घर मानने लगती है । यह भाव बदलनेसे ऐसी बात हो जाती है । परंतु यह संसारी सम्बन्ध तो अस्थिर है । परंतु हमारा भगवान्के साथ सम्बन्ध स्थिर है‒

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
                                              (गीता १५ । ७)

‘इस देहमें यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है ।’ अतः जब पक्का निश्रय हो जाय कि हमें तो परमात्माकी ओर ही जाना है तो जो नित्य सम्बन्ध है, वह जाग्रत् हो जाता है । हम परमात्माके है और परमात्मा हमारे हैं‒यह सम्बन्ध होते ही भजन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय स्वतः होगा । भगवान्के गुण, प्रभाव, लीला, रहस्य सब अपने मालूम होंगे । संसारकी चीजें अपनी नहीं हैं । जैसे शरीरका काम करते हैं, ऐसे ही संसारका काम कर देना है । जिस प्रकार विवाहित चतुर लड़की माता, पिता, भाई आदिके घर आती है तो वहाँकी ऐसी ठीक प्रकारसे सँभाल करती है कि पिता, भाई यह समझने लगते हैं कि लड़की यहाँपर है, सब सँभाल लेगी । वह घरकी चीज-वस्तुओकी, गाय-भैंस आदिकी ठीक प्रकारसे सँभाल रखती है । परंतु उन्हें अपना नहीं मानती । ऐसे ही परमात्माके साथ सम्बन्ध जुड़नेपर, अपनापन माननेपर, मनुष्य संसारकी वस्तुओंकी ठीक प्रकारसे सार-सँभाल करेगा, परन्तु हृदयसे यही मानेगा कि ये मेरी नहीं हैं । भगवान्के साथ अपनापन माननेमें जितना बल है, उतना अन्य साधनमें नहीं है ।

एक कहानी कहा करते है कि मथुराके कई चौबेलोगोंने मथुरासे प्रयागराज कुम्भ जानेका विचार किया । रेल, मोटर, साइकिल, पैदल ऐसे विचार करके अन्तमें नौकापर जानेका विचार हुआ । यमुनाजी उधर बहती हैं, ऐसा विचार करके शामको भाँग घोटकर मस्तीमें रातको रवाना हुए । विश्रामघाटसे चले, कई आदमी थे । सारी रात नाव चलायी । प्रातःकाल हो गया । शहर दिखायी दिया । पूछाकौन-सा शहर है ? उत्तर मिलामथुरा । फिर व्याकुल होकर पूछाकौन-सा घाट है ? उत्तर मिलाविश्राम-घाट । सोचने लगे कि विश्राम-घाटसे तो चढ़े थे, क्या बात हुई ? खोज करनेपर ध्यान आया कि नौकाका रस्सा खोलना भूल गये । रस्सा खोले बिना नाव कितनी ही चलावें, वहींके वहीं होगे । ऐसे ही अपनापन संसारसे रखोगे तो कितनी ही नौका चलाओ, भगवान्की ओर नहीं पहुँचोगे । परन्तु यदि रस्सा खोल दिया अर्थात् यह स्वीकार कर लिया कि हमारे तो परमात्मा है और हम परमात्माके है तो यमुनाजी स्वतः ही आपको अपने लक्ष्यकी ओर ले जायँगी, अर्थात् स्वतः ही भजन- ध्यान होगा ।

मुझे व्याख्यान देते कई वर्ष बीत गये, तब एक बात मनमें आयी कि ऐसे ऊँचे-ऊँचे महापुरुष हो गये है, उन्होंने शिष्य क्यों बनाये ? उन्हें संसारसे जब कुछ चाहना नहीं, लेना नहीं, फिर वे शिष्य क्यों बनाते हैं । तो स्वतः उत्तर आया कि वे अपने लिये शिष्य नहीं बनाते है । वे शिष्य इसलिये बनाते है कि शिष्यको बता दें कि तुम संसारके नहीं हो, तुम भगवान्के हो । शिष्य जान लेता है कि गुरु महाराजने बता दिया कि भगवान् हमारे है, संसार हमारा नहीं है । इस अपनेपनमें इतनी शक्ति है कि इसकी जितनी महिमा गायी जाय, उतनी थोड़ी है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे