।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि

आश्विन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
चतुर्थी-श्राद्ध
वास्तविक सुख


(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मा कहते हैं‒
पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।
                           (पातञ्जलयोगदर्शन १ । २६)

अर्थात् पहले जितने हो गये हैं, उन सबका वह ईश्वर गुरु है; क्योंकि कालसे भी उसका नाश नहीं होता । काल सबका भक्षण कर जाता है अर्थात् समय पाकर सब चीजें नष्ट हो जाती हैं । परंतु वह परमात्मा ऐसा है कि सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । उसीका अंश यह मनुष्य है । परन्तु यह अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर नाशवान्की ओर लग गया, इसलिये यह बार-बार दुःख पाता रहता है । इसको सुखका तो एक लोभ रहता है कि किसी तरह सुख मिल जाय, पर मिलता है प्रायः दुःख । पूरा सुख, पूरी अनुकूलता नहीं मिलती । कभी सुख, कभी दुःख; कभी अनुकूलता, कभी प्रतिकूलता; कभी मान, कभी अपमान; कभी निन्दा, कभी स्तुति‒ये दोनों अवस्थाएँ आती-जाती रहती हैं और इन्हींमें मनुष्य फँसा रहता है । इन द्वंद्वोंसे ऊँचा उठकर वास्तविक तत्त्वको प्राप्त करना है । इसीके लिये मानव-शरीर मिला है और इस मानव-शरीरसे ही उस तत्त्वको प्राप्त कर सकते हैं, इसमें संदेह नहीं । जैसे भूख लगती है तो खानेके लिये अन्न होता है, प्यास लगती है तो पीनेके लिये जल होता है, ऐसे ही अनन्त सुखको प्राप्त करनेकी इच्छा होती है तो ऐसा अनन्त सुख है । अगर अनन्त सुख न होता तो हमें जितना सुख मिला है, उसीसे हम तृप्त हो जाते; परंतु हम उससे तृप्त नहीं होते । जितना धन मिला है, जितना मान मिला है, जितना आदर मिला है जितनी उम्र मिली है, उससे हम तृप्त नहीं होते, प्रत्युत ‘और मिले, और मिले’‒ऐसी इच्छा रहती है । अतः एक ऐसी स्थिति होती है, जिसके मिलनेके बाद फिर और मिलनेकी इच्छा नहीं रहती ।

गीतामें कहा है‒
यं लब्ध्वा चापरं लाभ   मन्यते नाधिक ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                                         (६ । २२)

अर्थात् जिस लाभकी प्राप्ति होनेके बाद फिर कोई और लाभ मिल जाय, यह इच्छा रहती ही नहीं; सदाके लिये तृप्ति हो जाती है । कभी किसी बातकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं रहती । जिसमें न अन्नकी, न जलकी, न मानकी, न बड़ाईकी, न आरामकी, न भोगकी ही इच्छा रहती है, ऐसी तृप्ति, ऐसा एक आनन्द हमारेको मिल सकता है । उसकी प्राप्तिके लिये ही मानव-शरीर मिला है । जबतक उसकी प्राप्तिका उद्देश्य नहीं बनता, तबतक मनुष्यको ठीक तरहसे होश नहीं आता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे