।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’ (४ । १२), पर यह बात देखनेमें नहीं आती । ऐसा क्यों ?

उत्तर‒कर्मजन्य सिद्धि, कर्मोंका फल दो प्रकारका होता है‒तात्कालिक और कालान्तरिक । तात्कालिक फल शीघ्र देखनेमें आता है और कालान्तरिक फल समय पाकर देखनेमें आता है, शीघ्र देखनेमें नहीं आता । भोजन किया और भूख मिट गयी, जल पिया और प्यास मिट गयी, गरम कपड़ा ओढ़ा और जाड़ा दूर हो गया‒यह तात्कालिक फल है । इसी तरह किसीको प्रसन्न करनेके लिये उसकी स्तुति-प्रार्थना करनेसे, उसकी सेवा करनेसे वह प्रसन्न हो जाता है; ग्रहोंकी सांगोपांग  विधिपूर्वक पूजा करनेसे ग्रह शान्त हो जाते है; महामृत्युञ्जय मन्त्रका जप करनेसे रोग दूर हो जाते है; गयामें विधिपूर्वक श्राद्ध करनेसे जीव प्रेतयोनिसे  छूट जाता है और उसकी सद्‌गति हो जाती है‒यह सब कर्मोका तात्कालिक फल है । इस तात्कालिक फलको दृष्टिमें रखकर ही लोग देवताओंकी उपासना करते है । अतः ‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’ऐसा कहा गया है ।

प्रश्नज्ञानिजन  ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी, कुत्ते आदिमें समदर्शी होते हैं (५ । १८), तो फिर वर्ण, आश्रम आदिका अड़ंगा क्यों ?
उत्तरज्ञानी महापुरुषका व्यवहार तो ब्राह्मण, चाण्डाल गाय, हाथी आदिके शरीरोंको लेकर यथायोग्य ही होता है । शरीर नित्य-निरन्तर बदलते है; अतः ऐसे परिवर्तनशील शरीरमें उनकी विषमता रहती है और रहनी ही चाहिये । कारण कि सभी प्राणियोंके साथ खान-पान आदि व्यवहारकी एकता, समानता तो कोई कर ही नहीं सकता अर्थात् सबके साथ व्यवहारमें विषमता तो रहेगी ही । ऐसी विषमतामें भी तत्त्वदर्शी पुरुष एक परमात्माको ही समानरूपसे देखते हैं । इसीलिये भगवान्‌ने तत्त्वज्ञ पुरुषोंके लिये ‘समदर्शिनः’ कहा है, न कि ‘समवर्तिनः’ । समवर्ती (समान व्यवहार करनेवाला) तो यमराजका, मौतका नाम है[*], जो कि सबको समानरूपसे मारती है ।

प्रश्र‒भगवान्‌ प्राणिमात्रके सुहृद् हैं (५ । २९), बिना किसी कारणके सबका हित चाहनेवाले हैं, तो फिर वे प्राणियोंको ऊँच-नीच गतियोंमें क्यों भेजते हैं  ?

उत्तरसबके सुहृद् होनेसे ही तो भगवान्‌ प्राणियोंको उनके कर्मोके अनुसार ऊँच-नीच गतियोंमें भेजकर उनको पुण्य-पापोसे शुद्ध करते हैं, पुण्य-पापरूप बन्धनसे ऊँचा उठाते हैं (९ । २०-२१; १६ । १९-२०) ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे


[*] समवर्ती परेतराट्’ (अमरकोष १ । १ । ५८)