।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
पापाकुंशा एकादशी-व्रत (वैष्णव)
अच्छे बनो


(गत ब्लॉगसे आगेका)

खेड़ापामें श्रीरामदासजी महाराज हुए । उनके शिष्य श्रीदयालजी महाराज हुए । खेड़ापाके बहुत-से ऐसे साधु हैं, जो श्रीदयालजी महाराजको जितना याद करते हैं, उतना श्रीरामदासजी महाराजको याद नहीं करते । खेड़ापाके ही नहीं और जगहके भी साधु श्रीदयालजी महाराजके ‘करुणासागर’ का पाठ करते हैं । आप जरा विचार करें, कितनी विलक्षण बात है ! अगर आप अपने अवगुण देखकर उनको दूर करते जाओ तो आप अपने गुरुसे भी तेज हो जाओगे, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । गुरुजनोंके मनमें यही बात रहती है कि हमारा शिष्य हमारेसे भी श्रेष्ठ बन जाय । जो अच्छे-अच्छे उपदेष्टा हुए हैं, अच्छे-अच्छे व्याख्यानदाता हुए हैं, सच्चे हृदयसे गुरु हुए हैं, उनकी भावना यही रहती है कि हमारा शिष्य सबसे श्रेष्ठ हो जाय । हमने ऐसे गुरुजन देखे हैं । हमारे विद्यागुरुजी महाराज थे । उनका हम सबके प्रति यह भाव रहता था कि ये श्रेष्ठ हो जायँ । हम लड़के लोग रात्रिमें दीपकके पास बैठकर पढ़ते थे । कभी नींद आने लगती तो वे खिड़कीमेंसे देख लेते और बोलते‒‘अरे ! यों क्या करते हो ? हमें हरदम भय रहता कि महाराज देखते होंगे । वे चुपके-से आकर देखते और फिर बादमें पूछा करते कि ‘वहाँ कैसे खड़ा था ? ऐसे कैसे करता था वहाँ ?’ उनमें विद्यार्थियोंको पढ़ानेकी, तैयार करनेकी बड़ी लगन थी । मेरेको उन्होंने कई बार कहा कि मैं यह चाहता हूँ कि ‘कहीं कोई पंचायती पड़े, कोई शास्त्रीय उलझन पड़े तो उसमें हमारा शुकदेव निर्णायक बने । सभी इससे पूछें और यह निर्णय दे‒ऐसा मैं देखना चाहता हूँ ।’ यह भी कहा कि ‘मैं जैसा चाहता हूँ, वैसा बना नहीं सका ।’ अतः जो अच्छे गुरुजन होते हैं, वे ऐसे ही होते हैं । माँ-बाप भी ऐसे ही होते हैं । वे चाहते हैं कि हमारा शिष्य, हमारा पुत्र हमारेसे भी तेज हो, पर वे बना नहीं सकते । शिष्य या पुत्र अगर चाहे तो उनसे तेज बन सकता है, इसमें बिलकुल सन्देह नहीं है । इसलिये गीतामें कहा गया है‒

उद्धरेदात्मनात्मानं     नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्यैव रिपुरात्मनः ॥
                                                          (६ । ५)

अर्थात् अपने-आपसे अपना उद्धार करना चाहिये । अपने-आपसे अपना पतन नहीं करना चाहिये । आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । अतः आप अपनी जगह ठीक हो जाओ तो आप श्रेष्ठ बन जाओगे‒इसमें संदेह नहीं है । लोग मेरेको अच्छा कहें‒यह आशा मत रखो । कोई मेरेको बुरा न कह दे‒यह भय बहुत ही पतन करनेवाला है । यह भय करोगे तो कभी ऊँचा नहीं उठ सकोगे । जो दूसरोंके सर्टिफिकेटपर निर्णय करता है, वह ऊँचा कैसे उठेगा ? दूसरे सब-के-सब श्रेष्ठ कह दें‒यह हाथकी बात नहीं है । जो अवगुण आपमें नहीं है, वह अवगुण लोग आपमें बतायेंगे‒‘अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः’ (२ । ३६) । लोग तो न कहनेलायक बात भी कहेंगे । वे मनमें जानते हैं कि यह ऐसा नहीं है, फिर भी आपको चिढ़ानेके लिये, दुःखी करनेके लिये वैसी बात कहेंगे । आजकल जो वोट लेनेके लिये खड़े होते हैं, वे मनमें जानते हैं कि हमारे विपक्षमें जो आदमी खड़ा है, वह हमारेसे अच्छा है, पर ऐसा जानते हुए भी वे उसकी निन्दा ही करेंगे कि यह खराब है, हम अच्छे हैं । इसलिये आप अच्छे बनो, पर लोगोंसे यह आशा मत रखो कि वे आपको अच्छा कहें । वे आपको अच्छा जानते हुए भी अच्छा नहीं कहेंगे, बुरा कहेंगे । आपको अच्छा कहनेकी उनमें ताकत नहीं है । आप प्रतीक्षा करो कि लोग हमें अच्छा कहें‒यह कितनी बड़ी भूल है ! अच्छा कहलानेकी इच्छा छोड़ दो । अच्छा कहलाओ मत; अच्छे बनो ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे