।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७२, गुरुवार
गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒अर्जुनने जब पहले ही यह कह दिया था कि ‘मेरा मोह चला गया’–‘मोहोऽयं विगतो मम’ (११ । १), तो फिर दुबारा यह कहनेकी क्या आवश्यकता थी कि ‘मेरा मोह नष्ट हो गया’नष्टो मोहः’ (१८ । ७३) ?

उत्तरजब साधन करते-करते साधकको पारमार्थिक विलक्षणताका अनुभव होने लगता है, तब उसको यही मालूम देता है कि उस तत्त्वको मैं ठीक तरहसे जान गया हूँ; पर वास्तवमें पूर्णताकी प्राप्तिमें कमी रहती है । इसी तरह जब अर्जुनने दूसरे अध्यायसे दसवें अध्यायतक भगवान्‌के विलक्षण प्रभाव आदिकी बातें सुनीं, तब वे बहुत प्रसन्न हुए । उनको यही मालूम हुआ कि मेरा मोह चला गया; अतः उन्होंने अपनी दृष्टिसे ‘मोहोऽयं विगतो मम’ कह दिया । परंतु भगवान्‌ने इस बातको स्वीकार नहीं किया । आगे जब अर्जुन भगवान्‌के विश्वरूपको देखकर भयभीत हो गये, तब भगवान्‌ने कहा कि यह तेरा मूढूभाव (मोह) है; अतः तेरेको मोहित नहीं होना चाहिये‒‘मा च विमूढभावः’ (११ । ४९) । भगवान्‌के इस वचनसे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका मोह सर्वथा नहीं गया था | परंतु आगे जब अर्जुनने सर्वगुह्यतमवाली बातको सुनकर कहा कि आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी‒‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’ (१८ । ७३) तब भगवान्‌ कुछ बोले नहीं, मौन रहे और उन्होंने आगे उपदेश देना समाप्त कर दिया । इससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌ने अर्जुनके मोहनाशको स्वीकार कर लिया ।

प्रश्नगीताके अन्तमें संजयने केवल विराट्‌रूपका ही स्मरण क्यों किया (१८ । ७७) चतुर्भुजरूपका स्मरण क्यों नहीं किया ?

उत्तर‒भगवानका चतुर्भुजरूप तो प्रसिद्ध है, पर विराट्‌रूप उतना प्रसिद्ध नहीं है । चतुर्भुजरूप उतना दुर्लभ भी नहीं है, जितना विराट्‌रूप दुर्लभ है, क्योंकि भगवान्‌ने चतुर्भुजरूपको देखनेका उपाय बताया है (११ । ५४), पर विराट्‌रूपको देखनेका उपाय बताया ही नहीं । अतः संजय अत्यन्त अद्‌भुत विराट्‌रूपका ही स्मरण करते हैं ।

प्रश्नअर्जुनका मोह सर्वथा नष्ट हो गया था और मोह नष्ट होनेपर फिर मोह हो ही नहीं सकता–‘यज्ज्ञात्वा न  पुनर्मोहमेवं यास्यसि’ (४ । ३५) । परंतु जब अभिमन्यु मारा गया, तब अर्जुनको कौटुम्बिक मोह क्यों हुआ ?

उत्तरवह मोह नहीं था, प्रत्युत शिक्षा थी । मोह नष्ट होनेके बाद महापुरुषोंके द्वारा जो कुछ आचरण होता है, वह संसारके लिये शिक्षा होती है, आदर्श होता है । अभिमन्युके मारे जानेपर कुन्ती, सुभद्रा, उत्तरा आदि बहुत दुःखी हो रही थीं; अतः उनका दुःख दूर करनेके लिये अर्जुनके द्वारा मोह-शोकका नाटक हुआ था, लीला हुई थी । इसका प्रमाण यह है कि अभिमन्युके मारे जानेपर अर्जुनने जयद्रथको मारनेके लिये जो-जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, वे सब शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातोंको लेकर ही की गयी हैं (महाभारत, द्रोण ७३ । २५-४५) । अगर अर्जुन पर मोह, शोक ही छाया हुआ होता तो उनको शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातें कैसे याद रहतीं ? इतनी सावधानी कैसे रहती ? कारण कि मोह होनेपर मनुष्यको पुरानी बातें याद नहीं रहतीं और आगे नया विचार भी नहीं होता (२ । ६३), पर अर्जुनको सब बातें याद थीं, वे शोकमें नहीं बहे । इससे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका शोक करना नाटकमात्र, लीलामात्र ही था ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे