।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, शनिवार
षष्ठी-श्राद्ध
वास्तविक सुख

 
(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रायः लोगोंने मान रखा है कि उस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये बड़ा उद्योग करना पड़ता है; जंगलमें जाकर रहना पड़ता है, तपस्या करनी पड़ती है, बडे कष्ट सहने पड़ते हैं, तब कहीं वह तत्त्व मिलता है । ऐसी एक धारणा बनी हुई है । मेरी भी ऐसी धारणा रही है । परंतु वास्तवमें बात ऐसी नहीं है । जितने भी संसारके काम हैं, उन सबसे यह काम सुगम है । जो सब कुछ छोड़कर साधु बन जाय, वह उस तत्त्वको प्राप्त कर ले‒ऐसी बात भी नहीं है । गृहस्थ उस तत्त्वको प्राप्त नहीं कर सकता‒यह बात भी नहीं है । पढ़ा-लिखा प्राप्त कर सकता है, अनपढ़ नहीं कर सकता‒यह बात भी नहीं है । बहुत बलवान् होगा, तितिक्षु होगा, सहिष्णु होगा, वही प्राप्त कर सकता है, दूसरा नहीं कर सकता‒ऐसी बात भी नहीं है । कहनेका भाव यह है कि हम सब-के-सब उस तत्त्वको प्राप्त करनेके पूरे अधिकारी हैं । केवल एक ही लक्ष्य हो जाय कि हमें तो उस तत्त्वकी प्राप्ति करनी है । उसकी प्राप्तिके लिये ही सब सामग्री मिली हुई है । आवश्यकता होगी तो और सामग्री मिल जायगी‒परमात्माके यहाँ यह एक विलक्षण कायदा है । जैसे, आदमी बोलते-बोलते थक जाता है तो वह चुप हो जाता है और चुप होनेपर उसमें पुनः बोलनेकी शक्ति आ जाती है । चलते-चलते थक जाता है तो थोड़ी देर विश्राम करनेसे उसमें पुनः चलनेकी शक्ति आ जाती है । दिनभर काम करते-करते थककर रातमें सो जाता है तो सुबह पुनः ताजगी आ जाती है । तात्पर्य है कि मनुष्य जिस किसी कामको करता है, उसमें थकावट होनेपर बिना परिश्रमके, मुफ्तमें सामर्थ्य मिलती है । यह हम सबका अनुभव है । आप बताओ कि दिनभर काम करनेसे थक जाते हो तो रातमें कौन-सा परिश्रम करते हो कि जिससे सुबह शक्ति मिलती है ? चुपचाप पड़े रहनेसे ही शक्ति मिल जाती है । जितनी गाढ़ नींद आयेगी, उतनी शक्ति मिलेगी । वह शक्ति परमात्माकी है । परंतु थोड़ी शक्तिमें संतोष न करें, उसमें फँसे नहीं तो महान् शक्ति मिल सकती है । वह महान् शक्ति, वह परमात्म-तत्त्व आपको, हमको, सबको मिल सकता है । वह तत्त्व पहले जमानेमें जैसे मिलता था, उससे तो अभी बहुत सस्ता है । सत्य, त्रेता, द्वापरयुगमें उम्र भी ज्यादा होती थी, बुद्धि भी तेज होती थी, सामर्थ्य भी अधिक होती थी, उनके लिये वह चीज कठिन थी । जैसे, बड़े आदमीको सब तरहकी अनुकूलता मिलनी कठिन होती है; परंतु बालकको सुगमतासे अनुकूलता मिल जाती है । माँ-बापको समयपर अन्न न मिले तो भी वे बालकके लिये प्रबन्ध कर ही देते हैं; क्योंकि वह असमर्थ है । इसी तरहसे हम जितने असमर्थ होते हैं, उतनी ही हमें परमात्माकी तरफसे सामर्थ्य मिलती है । इतना ही नहीं, हमारी सामर्थ्यसे भी बढ़कर हमें सुविधा मिलती है । जैसे, बालक जितना छोटा होता है, उतनी ही उसको ज्यादा सुविधा मिलती है ।

हमारी चाहना, भीतरकी उत्कण्ठा, लालसा, अभिलाषा जोरदार जाग्रत् हो जाय । परंतु वह तब जाग्रत् होगी, जब हमें जो कुछ मिला है, उसमें हम संतोष न करें । कारण कि नाशवान् वस्तुसे हमारी कभी तृप्ति होगी नहीं । अगर नाशवान्से ऊँचे उठकर अविनाशी-तत्त्वको प्राप्त करनेकी तीव्र अभिलाषा जागृत हो जाय, तो वह प्राप्त हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे