।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
द्वादशी-श्राद्ध
कारागार‒एक शिक्षालय
(नागपुरके कारागारमें किया गया एक प्रवचन)


(गत ब्लॉगसे आगेका)

हमारे छः दर्शन-शास्त्र हैं । उनमेंसे एक शास्त्र है‒पातंजलयोगदर्शन । उसमें बताया है कि ‘हेय दुःखमनागतम्’ (२ । १६)‒जो दुःख आया नहीं है, पर आनेकी सम्भावना है, वह दुःख त्याज्य है । अर्थात् उस दुःखसे हम बच सकते हैं ! जो दुःख भोग चुके, वह तो भोग ही चुके, उसका क्या किया जाय ? अभी जो दुःख भोग रहे हैं, वह भोगनेसे नष्ट हो जायगा । अब आगे आनेवाले दुःखसे बचना चाहिये । उससे बचनेके लिये ही यह मानव-शरीर मिला है । इस मानव-शरीरमें अगर हम सावधान रहें, ठीक तरहसे आचरण करें और मर्यादाके अनुसार चलें तो आगे दुःख नहीं होगा । आनेवाले दुःखसे बचनेके लिये आपका यह स्थान बहुत बढ़िया है । अब आपके लिये सावधानीकी विशेष आवश्यकता है । जो बाहर गृहस्थमें रहते हैं और अपनेको स्वतन्त्र मानते हैं, उनमें भी सावधानीकी पूरी आवश्यकता है । सावधानीके बिना प्रमाद, आलस्य आदि तमोगुणी वृत्तियाँ मिटेगी नहीं । हिंसा, प्रमाद, आलस्य, निरर्थक समय बर्बाद करना बहुत खराब चीज है । इसलिये आपलोगोंके लिये बहुत उचित बात यह है कि सब-का-सब समय अच्छे काममें लगाये रखें ।

हरेक आदमीके लिये, वह साधु हो चाहे गृहस्थ हो, भाई हो चाहे बहन हो, पढ़ा-लिखा हो चाहे अपढ़ हो, मैं चार बातें कहा करता हूँ । उन बातोंको काममें लायें तो बहुत लाभ होगा, जीवन शुद्ध बन जायगा । वे चार बातें इस प्रकार हैं‒
(१) सबसे पहली बात है समयकी । हमारे पास जितना समय है, उस समयको अच्छे-से-अच्छे काममें, उत्तम-से-उत्तम काममें लगाये । समयको बर्बाद न करे । ताश, खेल, चौपड़, सिनेमा, नाटक, खेलकूद (हाकी, क्रिकेट आदि खेलने) में जो समय जाता है, वह बर्बाद होता है । न तो उससे परमात्मा मिलते हैं और न संसारका कोई लाभ होता है । हाँ, कई खेल ऐसे हैं, जिनसे शारीरिक व्यायाम होता है, स्वास्थ्य भी ठीक होता है; परंतु प्रायः निरर्थक समय जाता है । सिनेमा देखनेसे आँखें भी खराब होती हैं, धन भी नष्ट होता है, समय भी बर्बाद होता है और चरित्र भी खराब होता है । खेल-तमाशोंमें उम्र बर्बाद हो जाती है ।

हमें जो समय मिला है, वह सीमित है, असीम नहीं है । जैसे घड़ीमें जितनी चाबी भरी हुई होती है, उतनी देर ही वह चलती है । चाबी समाप्त होते ही घड़ी बंद हो जाती है । ऐसे ही हमारी श्वासरूपी घड़ी चलती है । श्वास खत्म होते ही मरना पड़ता है । फिर कोई जी नहीं सकता । किसी बल, अधिकार, योग्यतासे जी जायँ या विद्वान् होनेसे जी जायँ‒यह हाथकी बात नहीं । वे श्वास अगर निरर्थक कामोंमें खर्च होते हैं, पाप करनेमें और दुर्व्यसनोंका सेवन करनेमें खर्च होते हैं तो यह महान् मूढ़ता है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे