।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक अमावस्या, वि.सं.२०७२, बुधवार
दीपावली
गीतामें आये परस्पर-विरोधी पदोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(१९) सत् और असत् भी मैं ही हूँ (९ । १९) उस परमात्माको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है ( १३ । १२)‒यह कैसे ?

भगवान् जहाँ कार्य-कारणरूपसे अपनी विभूतियोंका वर्णन करते हैं, वहाँ कहते हैं कि सत्‌ और असत् जो कुछ भी है, वह सब मैं ही हूँ, मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है । परंतु जहाँ ज्ञेय-तत्त्वका वर्णन करते हैं वहाँ कहते हैं कि उस तत्त्वको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है; क्योंकि उस तत्त्वका किसी शब्दके द्वारा वर्णन नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि सगुणकी दृष्टिसे सब कुछ भगवान् ही हैं; निर्गुणकी दृष्टिसे वे न सत् कहे जा सकते हैं और न असत् ही; और भक्तिकी दृष्टिसे सत् और असत् भी वे ही हैं तथा सत्-असत्‌से परे भी वे ही हैं‒सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७)

(२०) मेरे भक्तका विनाश (पतन) नहीं होता (९ । ३१), तू मेरा भक्त है (४ । ३); और यदि तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा विनाश (पतन) हो जायगा (१८ । ५८)‒यह कैसे ?

यद्यपि भक्त भगवान्‌की बात न सुने, उनकी आज्ञाके विरुद्ध चले‒ऐसा सम्भव नहीं हैं, तथापि अगर वह भगवान्‌की बात नहीं सुनेगा तो वह भगवान्‌का भक्त नहीं रहेगा अर्थात् भक्तपनसे छूट जायगा । फिर उसके पतनको रोकनेवाला कौन है ? तात्पर्य है कि जबतक वह भगवान्‌का भक्त है, तबतक उसका पतन हो तो नहीं सकता; परंतु जब वह भक्तपनको छोड़ देता है, अभक्त हो जाता है, तब उसका पतन हो जाता है ।

(२१) जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधिरूप दुःखको बार-बार देखना चाहिये (१३ । ८); कर्तव्य-कर्ममें दुःख देखनेवाले तथा शरीरके भयसे कर्म छोड़नेवाले राजस मनुष्यको त्यागका फल नहीं मिलता (१८ । ८)‒यह कैसे ?

यहाँ विषय दो हैं । भोगोंमें जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधिरूप दुःखको देखना वैराग्यमें हेतु है अर्थात् अभी भोग भोगेंगे तो उसके परिणाममें बार-बार जन्मना-मरना पड़ेगा, शरीरमें रोग होंगे, वर्तमानमें भय और चिन्ता होगी, परलोकमें दुर्दशा होगी‒इस प्रकार भोगोंमें दुःखको देखनेसे भोगोंसे वैराग्य हो जायगा । अतः भोगोंमें दुःख-दृष्टि जरूर करनी चाहिये । परंतु कर्तव्य-कर्ममें दुःख देखना पतनमें हेतु है; अतः कर्तव्य-कर्ममें दुःख-दृष्टि कभी करनी ही नहीं चाहिये, प्रत्युत कर्तव्य-कर्मको उत्साहपूर्वक तत्परतासे करना चाहिये । तात्पर्य है कि भोगोंमें राग नहीं होना चाहिये और कर्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे