(गत ब्लॉगसे आगेका)
अच्छे आचरण करनेवालेको कोई यह नहीं कहता कि तुम अच्छे
आचरण क्यों करते हो, पर बुरे आचरण करनेवालेको सब कहते हैं कि तुम बुरे आचरण क्यों करते
हो ? प्रसन्न रहनेवालेको कोई यह नहीं कहता कि तुम प्रसन्न क्यों
रहते हो, पर दुःखी रहनेवालेको सब कहते हैं कि तुम दुःखी क्यों
रहते हो ? तात्पर्य है कि भगवान्का ही
अंश होनेसे जीवमें दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक है‒‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी चेतन अमल सहज सुखरासी ॥’ (मानस ७ । ११७ । १) । आसुरी सम्पत्ति स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक
है और नाशवान्के संगसे आती है । जब जीव भगवान्से विमुख होकर नाशवान् (असत्) का
संग कर लेता है अर्थात् शरीरमें अहंता-ममता कर लेता है,
तब उसमें आसुरी सम्पत्ति आ जाती है और दैवी सम्पत्ति दब जाती है । नाशवान्का संग छूटते ही सद्गुण-सदाचार
स्वतः प्रकट हो जाते हैं ।
(२) ‘साधुभावे च सदित्येतत्ययुज्यते’‒अन्तःकरणके श्रेष्ठ
भावोंको ‘साधुभाव’ कहते हैं । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे श्रेष्ठ भावोंके लिये ‘सत्’ शब्दका प्रयोग
किया जाता है । श्रेष्ठ भाव अर्थात् सद्गुण-सदाचार दैवी सम्पत्ति है । ‘देव’ नाम भगवान्का है और उनकी सम्पत्ति ‘दैवी सम्पत्ति’ कहलाती है । भगवान्की सम्पत्तिको
अपनी माननेसे अथवा अपने बलसे उपार्जित माननेसे अभिमान आ जाता है, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है । अभिमानकी छायामें सभी दुर्गुण-दुराचार रहते हैं ।
सद्गुण-सदाचार किसीकी व्यक्तिगत
सम्पत्ति नहीं है । अगर ये व्यक्तिगत होते तो एक व्यक्तिमें जो सद्गुण-सदाचार हैं, वे दूसरे व्यक्तियोंमें
नहीं आते । वास्तवमें ये सामान्य धर्म हैं, जिनको मनुष्यमात्र
धारण कर सकता है । जैसे पिताकी सम्पत्तिपर सन्तानमात्रका अधिकार होता है, ऐसे ही भगवान्की सम्पत्ति (सद्गुण-सदाचार) पर प्राणिमात्रका समान
अधिकार है ।
अपनेमें सद्गुण-सदाचार होनेका जो अभिमान आता है, वह वास्तवमें सद्गुण-सदाचारकी कमीसे अर्थात् उसके साथ आंशिकरूपसे रहनेवाले
दुर्गुण-दुराचारसे ही पैदा होता है । जैसे, सत्य बोलनेका अभिमान
तभी आता है; जब सत्यके साथ आंशिक असत्य रहता है । सत्यकी पूर्णतामें
अभिमान आ ही नहीं सकता । असत्य साथमें रहनेसे ही सत्यकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान
आता है । जैसे, किसी गाँवमें सब निर्धन हों और एक लखपति हो तो
उस लखपतिकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान आता है । परन्तु जिस गाँवमें सब-के-सब करोडपति हों, वहाँ लखपतिकी
महिमा नहीं दीखती और उसका अभिमान नहीं आता । तात्पर्य है कि अपनेमें विशेषता दीखनेसे ही अभिमान आता है । अपनेमें विशेषता दीखना
परिच्छिन्नताको पुष्ट करता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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