।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
गोपाष्टमी
गीतोक्त सदाचार


(गत ब्लॉगसे आगेका)

सद्गुण-सदाचारकी स्वतन्त्र सत्ता है, पर दुर्गुण-दुराचारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । कारण कि असत्को तो सत्की जरूरत है, पर सत्को असत्की जरूरत नहीं है । झूठ बोलनेवाला व्यक्ति थोड़े-से पैसोंके लोभमें सत्य बोल सकता है, पर सत्य बोलनेवाला व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोल सकता ।

() प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यतेतथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें भीसत्शब्दका प्रयोग किया जाता है । दान, पूजा, पाठादि जितने भी शास्त्र-विहित शुभकर्म हैं, वे स्वयं ही प्रशंसनीय होनेसे सत्कर्म हैं, किंतु इन प्रशस्त कर्मोंका भगवान्के साथ सम्बन्ध नहीं रखनेसे वे सत्न कहलाकर केवल शास्त्र-विहित कर्ममात्र रह जाते हैं । यद्यपि दैत्य-दानव भी प्रशंसनीय कर्म तपस्यादि करते हैं, परन्तु असद् भावदुरुपयोग करनेसे इनका परिणाम विपरीत हो जाता है

मूढग्राहेणात्मनो  यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥
                                             (गीता १७ । १९)

जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे, मन, वाणी और शरीरकी पीड़ाके सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है । वस्तुतः प्रशंसनीय कर्म वे होते हैं, जो स्वार्थ और अभिमानके त्यागपूर्वक सर्वभूतहिते रताः भावसे किये जाते हैं । शास्त्र-विहित सत्कर्म भी यदि अपने लिये किये जायँ तो वे असत्कर्म हो जाते हैं, बाँधनेवाले हो जाते हैं । उनसे यदि ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो वहाँसे लौटकर आना पड़ता हैआब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।’ (गीता ८ । १६)

भगवान्के लिये कर्म करनेवाले सदाचारी पुरुषका कभी नाश नहीं होता

पार्थ  नैवेह  नामुत्र    विनाशस्तस्य  विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥
                                                 (गीता ६ । ४०)

हे पार्थ ! उस पुरुषका न तो इस लोकमें नाश होता है और न परलोकमें ही । क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी (भगवत्प्राप्तिके लिये) कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे