(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् आज्ञा देते हैं‒
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि
ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
(९ । २७)
‘हे अर्जुन !
तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है और जो तप करता है,
वह सब मेरे अर्पण कर ।’ यहाँ यज्ञ, दान और
तपके अतिरिक्त ‘यत्करोषि’ और ‘यदश्रासि’‒ये दो क्रियाएँ
और आयी हैं । तात्पर्य यह है कि यज्ञ, दान और तपके अतिरिक्त हम
जो कुछ भी शास्त्र-विहित कर्म करते हैं और शरीर-निर्वाहके लिये खाना, पीना, सोना
आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं, वे सब भगवान्के अर्पण करनेसे ‘सत्’ हो जाती
हैं । साधारण-से-साधारण स्वाभाविक-व्यावहारिक
कर्म भी यदि भगवान्के लिये किया जाय तो वह भी ‘सत्’ हो जाता है । भगवान्
कहते हैं‒
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं
विन्दति मानवः ॥
(गीता १८ ।
४६)
‘अपने स्वाभाविक कर्मोंके
द्वारा उस परमात्माकी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’ जैसे, एक व्यक्ति प्राणियोंकी साधारण सेवा केवल भगवान्के लिये
ही करता है और दूसरा व्यक्ति केवल भगवान्के लिये ही जप करता
है । यद्यपि स्वरूपसे दो प्रकारकी छोटी-बड़ी क्रियाएँ दीखती हैं,
परंतु दोनों (साधकों) का
उद्देश्य परमात्मा होनेसे वस्तुतः उनमें किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं है; क्योंकि परमात्मा सर्वत्र समानरूपसे परिपूर्ण हैं । वे जैसे जप-क्रियामें हैं, वैसे ही साधारण सेवा-क्रियामें भी हैं ।
भगवान् ‘सत्’ स्वरूप हैं
। अतः उनसे जिस किसीका भी सम्बन्ध होगा, वह सब ‘सत्’ हो जायगा । जिस प्रकार
अग्निसे सम्बन्ध होनेपर लोहा, लकड़ी, ईंट, पत्थर, कोयला‒ये सभी एक-से चमकने लगते
हैं, वैसे ही भगवान्के लिये ( भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे) किये गये छोटे-बड़े सब-के-सब कर्म ‘सत्’ हो जाते हैं, अर्थात् सदाचार
बन जाते हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीतामें सदाचार-सूत्र[*] यही बतलाया गया है कि यदि मनुष्यका
लक्ष्य (उद्देश्य) केवल सत् (परमात्मा) हो जाय तो
उसके समस्त कर्म भि ‘सत्’ अर्थात् सदाचाररूप ही हो जायँगे । अतएव सत्स्वरूप एवं सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन
परमात्माकी ओर ही अपनी वृत्ति रखनी चाहिये, फिर सद्गुण, सदाचार स्वतः प्रकट होने
लगेंगे ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
[*] यद्यपि गीता सर्वशास्त्रमयी है और उसमें
सर्वत्र सदाचारकी ही चर्चा है, फिर भी भगवान्ने कृपा
करके इतने छोटेसे ग्रन्थमें अनेक प्रकारसे कई स्थानोंपर सदाचारी पुरुषके लक्षणोंका
विभिन्न रूपोंमें वर्णन किया है, जिनमें निम्नलिखित स्थल प्रमुख
हैं‒(१) दूसरे अध्यायके ५५वें श्लोकसे ७१वें
श्लोकतक स्थितप्रज्ञ-सदाचारीका वर्णन, (२) बारहवें अध्यायके १३वें श्लोकसे २०वें श्लोकतक भक्तसदाचारीका
वर्णन, (३) तेरहवें अध्यायके ७वें श्लोकसे
११वें श्लोकतक ज्ञानके नामसे सदाचारका वर्णन, (४) चौदहवें अध्यायके २२वें श्लोकसे २५वें श्लोकतक गुणातीत सदाचारीके लक्षण-आचरण और प्राप्तिके उपायका वर्णन और (५) सोलहवें अध्यायके पहले श्लोकसे तीसरे श्लोकतक दैवी (भगवान्की) सम्पत्तिरूप सदाचारका वर्णन ।
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