।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, बुधवार
श्रीगुरुनानक-जयन्ती, कार्तिक-स्नान समाप्त
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


समानाः श्लोकपादा हि गीतायां सन्ति यत्र च ।
तात्पर्यं    कथ्यते     तेषां     पूर्वापरप्रसंगतः ॥

‘सेनयोरुभयोर्मध्ये (१ । २१, २४; २ । १०) ‒एक बार तो अर्जुनने भगवान्‌से अपना रथ दोनों सेनाओंके मध्यभागमें खड़ा करनेके लिये कहा (१ । २१), एक बार भगवान्‌ने दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा कर दिया । (१ । २४) और एक बार वहीं (दोनों सेनाके बीचमें) अर्जुनको उपदेश दिया (२ । १०) । इस प्रकार तीन तरहकी परिस्थितियाँ हुईं । रथ खड़ा करो‒ऐसा कहते समय अर्जुनका भाव और ही था अर्थात् वे अपनेको रथी और भगवान्‌को सारथि मानते थे; दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खडा करके भगवान्‌ने कहा कि इन कुरुवंशियोंको देखो तो अर्जुनका भाव और ही हुआ अर्थात् उनमें कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया; और भगवान्‌ने उपदेश दिया तो अर्जुनका भाव और ही हुआ अर्थात् वे शिष्यभावसे उपदेश सुनने लगे ।

(२) कुलक्षयकृतं दोषम्’ (१ । ३८,३९)‒ये पद कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको न देखने और देखनेके अर्थमें आये हैं । जिन मनुष्योंपर लोभ सवार हो जाता है और लोभके कारण जिनका कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक ढक जाता है, वे अपने व्यवहारमें होनेवाले दोषोंको नहीं जानते । परन्तु जो लोभके वशीभूत नहीं है और जिनमें कर्तव्य- अकर्तव्यका, धर्म-अधर्मका विवेक है, वे अपने व्यवहारमें होनेवाले दोषोंको अच्छी तरह जानते हैं । दुर्योधन आदिपर राज्यका लोभ छाया हुआ होनेसे वे कुलके नाशसे होनेवाले दोषोंको नहीं देख रहे थे; परंतु पाण्डवोंपर राज्यका लोभ नहीं छाया हुआ होनेसे वे कुलके नाशसे होनेवाले दोषोंको स्पष्ट देख रहे थे । तात्पर्य है कि मनुष्यको कभी लोभके वशीभूत नहीं होना चाहिये ।

(३) येन सर्वमिदं ततम्’ (२ । १७; ८ । २२; १८ । ४६)‒एक बार तो शरीरी-(जीवात्मा-) की व्यापकता बतायी (२ । १७) और दो बार परमात्माकी व्यापकता बतायी (८ । २२; १८ । ४६) । तात्पर्य है कि साधकको अपने स्वरूपको भी सर्वत्र व्यापक मानना चाहिये और परमात्माको भी सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें व्यापक मानना चाहिये । इससे बहुत जल्दी साधनकी सिद्धि होती है ।         

(४) न त्वं शोचितुमर्हीस’ (२ । २७, ३०)‒दोनों सेनाओंमें अपने स्वजनोंको देखकर अर्जुनको शोक हो रहा था; अतः भगवान् उनको बार-बार चेताते हैं । अगर लौकिक दृष्टिसे देखा जाय तो जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु अवश्य होगी और जिसकी मृत्यु होगी, उसका जन्म अवश्य होगा‒इस निश्चित नियमको लेकर भी शोक नहीं हो सकता (२ । २७) । यदि चेतन तत्त्वको लेकर देखा जाय तो उसका कभी नाश होता ही नहीं; अतः उसके लिये भी शोक करना बनता नहीं (२ । ३०) । तात्पर्य है कि शरीर और शरीरी‒दोनोको लेकर शोक नहीं करना चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे