।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जब हनुमानजी सीता माताके पास गये तो सामने फल लगे देखकर उनको भूख लगी । माँको देखते ही बालकोंको भूख लग जाया करती है ! और माँको मनमें भी आ जाता है कि कुछ खिला दूँ । सीता माताने सोचा कि यह बालक है, इसको कोई राक्षस खा जायगा ! इसलिये कहा कि ‘न बेटा, हाऊ खा जायगा !’ हनुमान्‌जीने कहा कि माँ ! मेरेको राक्षसोंका भय नहीं है ! अगर तुम सुख मानो, मनमें प्रसन्न हो जाओ तो फल खा लूँ‒‘तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जो तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥’  (मानस ५ । १७ । ५) । फल भी खाना है, तो माँकी राजीके लिये ! माँने कहा कि बेटा ! रघुनाथजी महाराजको याद करके मीठे-मीठे फल खाओ‒‘रघुपति चरन हृदय धरि तात मधुर फल खाहु’ (मानस ५ । १७) । हनुमान्‌जीने फल खाये और राक्षसोंको अच्छी तरहसे मसल दिया ।

जब  हनुमान्‌जी छिपकर लंकामें प्रवेश कर रहे थे तो लंकिनीने उनको देख लिया और रोक दिया । हनुमान्‌जीने उसको मुक्का मारा । लंकिनी बेचारी तो अपनी ड्‌यूटीपर पक्की थी, उसको मुक्का मार दिया, यह कोई न्याय है ? अनजान आदमीको रोकना तो पहरेदारका कर्तव्य है । बीकानेरके राजा श्रीगंगासिंहजी महाराजकी एक बात मैंने सुनी है । एक बार वे मामूली आदमी बनकर पहरेदारके पास गये और कहा कि मुझे भीतर जाने दो । पहरेदारने मना कर दिया कि नहीं जाने देंगे । गंगासिंहजीने दो रुपये निकाले और कहा कि ये दो रुपये ले लो, मुझे भीतर जाने दो । पहरेदारने उनको जोरसे एक थप्पड़ लगाया ! वे चुपचाप पीछे लौट गये । सुबह उस पहरेदारको बुलाया और कहा कि ‘अरे ! इतनी जोरसे थप्पड़ मारा करते हैं क्या ! तात्पर्य है कि यह पहरेदारका अधिकार है । गंगासिंहजी भी कुछ कह नहीं सके कि तुमने थप्पड़ कैसे मारा ? उनके मनमें तो यह आया कि ऐसे ईमानदार आदमीको अच्छी जगहपर रखना चाहिये; मेरेसे गलती हुई कि ऐसे आदमीको मामूली पहरे पर रखा ! परन्तु  हनुमान्‌जीने लंकाकी पहरेदार लंकिनीको मुक्का मारा ! कारण क्या था ? लंकिनीने कहा कि चोर मेरा आहार होता है‒‘मोर अहार जहाँ लगि चोरा’  (मानस ५ । ४ । २) । इसपर  हनुमान्‌जीने उसको मुक्का मारा कि अगर चोर तेरा आहार होता है तो तूने सीताजीको चुरानेवाले रावणको क्यों नहीं अपना आहार बनाया ? इतनी जोरसे मुक्का मारा कि उसके मुखसे खून बहने लगा और वह कहती है कि आज सुख मिला ! ‒

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख   धरिअ  तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
                                                (मानस ५ । ४)

कारण कि उसकी दृष्टि अपने शरीरकी तरफ नहीं है, प्रत्युत सत्संगसे होनेवाले लाभकी तरफ है ।


‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे