।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
एकादशी-व्रत कल है
गीतामें आये परस्पर-विरोधी पदोंका तात्पर्य


वस्तुतो न  विरोधोऽस्ति स्वाल्पबुद्ध्यैव दृश्यते ।
तस्मात् पदानां तात्पर्यं कथ्यते च विरोधिनाम् ॥

(१) इस तत्त्वकी सुनकर भी कोई नहीं जानता (२ । २९) और यत्न करनेवालोंमेंसे कोई एक भगवान्‌को तत्त्वसे जानता है (७ । ३)‒यह कैसे ?

यहाँ और वहाँका प्रसंग अलग-अलग है । यहाँ (२ । २१ में) ज्ञानयोगका प्रसंग है; अतः सुननेमात्रसे कोई भी अपने स्वरूपको नहीं जान सकता, प्रत्युत अपने-आपसे ही अपने-आपको जान सकता है । वहाँ (७ । ३ में) भक्तियोगका प्रसंग है; अतः भगवान्‌की कृपासे साधक भगवान्‌के तत्त्वको जान लेता है ।

(२) मैं अज (अजन्मा) रहता हुआ ही जन्म लेता हूँ प्राणियोंका ईश्वर (मालिक) रहता हुआ ही दास बन जाता हूँ और अव्ययात्मा रहता हुआ ही अन्तर्धान हो जाता हूँ (४ । ६), तो अजका जन्म कैसे ? मालिकका दास होना कैसे ? और अव्ययात्माका अन्तर्धान होना कैसे ?

यह तो भगवान्‌की लीला है । जन्म लेते हुए भी भगवान्‌का अजपना मिटता नहीं, प्रस्तुत अखण्डित ही रहता है । भगवान् भक्तोंके दास भी बन जाते हैं, पर उनका ईश्वरपना मिटता नहीं । भगवान् जिनके दास बनते है, उनपर भी भगवान्‌का शासन ज्यों-का-त्यों ही रहता है । ऐसे ही अव्ययात्मा रहते हुए ही भगवान् अन्तर्धानकी लीला करते हैं; भक्तोंका प्रेम बढ़ानेके लिये छिप जाते हैं । तात्पर्य है कि यह सब लीलापुरुषोत्तमकी लीला है; अतः इसमें कोई विरोध या आश्चर्य नहीं है ।

(३) मैं चारों वर्णोंकी रचना करता हूँ, पर तुम मेरेको अकर्ता ही समझो (४ । १३), तो भगवान्‌ कर्ता होते हुए भी अकर्ता कैसे ?

भगवान् तो केवल संसारकी व्यवस्था करने और अपने भक्तोंकी सेवा करनेके लिये ही संसारकी रचना करते हैं । इसमें भगवान्‌का अपना कोई भी प्रयोजन, स्वार्थका सम्बन्ध नहीं है । सब प्राणियोंका कर्मबन्धन नष्ट हो जाय, सब मुक्त हो जायँ, इसी दृष्टिसे भगवान् संसारकी व्यवस्था करते हैं । भक्तोंका भगवान्‌में और भगवान्‌का भक्तोंमें प्रेमका आदान-प्रदान हो, दोंनोंमें प्रेमकी लीला हो, इसके लिये ही भगवान् सृष्टिकी रचना करते हैं । अतः सृष्टिकी रचना करनेपर भी भगवान् अकर्ता ही रहते हैं ।

(४) कर्मोंमें अच्छी तरहसे प्रवृत्त होता हुआ भी अर्थात् कर्मोंको संगोपांग करता हुआ भी वह (कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुष) कुछ भी नहीं करता (४ । २०)‒यह कैसे ?

जो अपने भीतर किसी बातकी कमीका अनुभव करता है, जिसके भीतर फलकी इच्छा होती है और जो जड़ताका आश्रय लेकर कर्म करता है, वह कर्म करता हुआ भी कर्म करता है और कर्म न करता हुआ भी कर्म करता है; क्योंकि उसका जड़ताके साथ सम्बन्ध है । परंतु जो अपनेमें किञ्चिन्मात्र भी कमीका अनुभव नहीं करता, जिसके भीतर फलकी इच्छा नहीं है और जिसके भीतर जड़ताका आश्रय नहीं है, वह कर्म करता हुआ भी कर्म नहीं करता और कर्म न करता हुआ भी कर्म नहीं करता; क्योंकि उसका जड़ताके साथ सम्बन्ध नहीं है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे