।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, रविवार
गीतामें आये परस्पर-विरोधी पदोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(९) कर्मोंमें आसक्ति न रहनेपर मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है (६ । ४); अपने-अपने कर्ममें अभिरत रहता हुआ मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है (१८ । ४५)‒यह कैसे ?

योगारूढ़ होना और सिद्धिको प्राप्त होना‒ये दोनों एक ही है; परंतु कर्मोंमें आसक्ति और कर्मोंमें अभिरति‒ये दोनों अलग-अलग हैं । फलेच्छापूर्वक अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंमें आसक्ति हो जाती है और भगवान्‌के लिये कर्म करनेसे कर्मोंमें अभिरति (तत्परता) हो जाती है । आसक्तिमें कर्मों तथा पदार्थोंके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और अभिरतिमें कर्मों तथा पदार्थोंसे सम्बन्ध टूटता है और भगवान्‌में प्रीति हो जाती है, भगवत्सम्बन्धकी जागृति हो जाती है । अतः कर्मोंमें अभिरति तो होनी चाहिये, पर आसक्ति नहीं होनी चाहिये ।

(१०) कोई एक मेरेको तत्त्वसे जानता है (७ । ३), मेरेको कोई नहीं जानता (७ । २६)‒यह कैसे ?

सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें साधकोंकी बात है । जो संसारसे उपराम होकर भगवान्‌में लग जाते हैं, वे भगवान्‌की कृपासे भगवान्‌को जान जाते हैं । सातवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें सामान्य प्राणियोंकी बात है । जो प्राणी जन्म-मृत्युके प्रवाहमें पड़े हुए हैं, उनको भगवान् तो जानते हैं, पर वे प्राणी मूढ़ताके कारण भगवान्‌को नहीं जानते । तात्पर्य है कि उपर्युक्त दोनों श्लोकोंमें साधक-असाधकका भेद है अर्थात् तीसरे श्लोकमें जाननेके कर्ता साधक हैं और छब्बीसवें श्लोकमें जाननेके कर्ता असाधक हैं ।

(११) यत्न (भजन) करनेवालोंमें कोई एक मेरेको तत्त्वसे जानता है (७ । ३); भक्त मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि जानकर मेरा भजन करते हैं (९ । १३), तो बिना जाने भजन कैसे ? और बिना भजन किये जानना कैसे ?

सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्‌को तत्त्वसे जाननेकी बात है । भगवान्‌को जानना साधकके बलसे नहीं होता, प्रत्युत भगवान्‌की कृपासे ही वह भगवान्‌को तत्त्वसे जानता है । नवें अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान्‌को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक माननेकी बात है अर्थात् वहाँ श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मानना ही जानना है । अतः भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि हैं‒ऐसा मानकर ही वे भजन करते हैं ।

(१२) सात्त्विक, राजस और तामस भाव (पदार्थ, क्रिया आदि) मेरेमें नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूँ (७ । १२); सम्पूर्ण प्राणी उस परमात्मामें हैं और परमात्मा उन प्राणियोंमें हैं (८ । २२)‒यह कैसे ?

जिन साधकोंकी दृष्टिमें भगवान्‌के सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है उनकी दृष्टिसे कहा गया है कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवान्‌में और भगवान् उनमें नहीं हैं, प्रत्युत सब कुछ भगवान्‌-ही-भगवान् हैं (७ । १२) । परंतु जिन साधकोंकी दृष्टिमें संसारकी पृथक् सत्ता है, उनकी दृष्टिसे कहा गया है कि सम्पूर्ण प्राणी परमात्मामें और परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंमें हैं (८ । २२) ।   

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे