गीता उपनिपदोंका सार हे । पर वास्तवमें गीताकी
बात उपनिपदोंसे भी विशेष है । कारणकी अपेक्षा कार्यमें विशेप गुण होते है; जैसे‒आकाशमें केवल एक गुण ‘शब्द’ है,
पर उसके कार्य वायुमें दो गुण ‘शब्द और स्पर्श’ हैं ।
वेद भगवान्के निःश्वास हैं और गीता भगवान्की वाणी
है । निःश्वास तो स्वाभाविक होते है,
पर गीता भगवान्ने योगमें स्थित होकर कही है । अतः
वेदोंकी अपेक्षा भी गीता विशेष है ।
सभी दर्शन गीताके अर्न्तगत है, पर गीता किसी दर्शनके अर्न्तगत नहीं है । दर्शनशास्त्रमें जगत क्या है, जीव क्या है और ब्रह्म क्या है‒यह पढाई होती है । परन्तु गीता पढाई नहीं कराती, प्रत्युत अनुभव कराती हे ।
गीतामें किसी मतका आग्रह नहीं है, प्रत्युत
केवल जीवके कल्याणका ही आग्रह है ।
मतभेद गीतामें नहीं है, प्रत्युत टिकाकारोंमें है ।
गीतामें भगवान् साधकको समग्रकी तरफ ले जाते हैं ।
सब कुछ परमात्माके ही अर्न्तगत है, परमात्माके सिवाय किचिन्मात्र भी कुछ नहीं है‒इसी भावमें सम्पूर्ण गीता है ।
गीताका तात्पर्य ‘वासुदेवः सर्वम्’ में
है । सबकुछ परमात्मा ही हैं‒यह खुले नेत्रोंका ध्यान है । इसमें न आँख बन्द करनेकी (ध्यान) जरुरत है, न कान
बन्द करनेकी (नादानुसंधान) की जरुरत है,
न नाक बन्द करनेकी (प्राणायाम) जरुरत है ! इसमें न
संयोगका असर पड़ता है, न वियोगका; न किसीके
आनेका असर पड़ता है, न किसीके जानेका । सब कुछ परमात्मा है ही तो फिर दूसरा
कहाँसे आये ? कैसे आये ?
गीता कर्मयोगको ज्ञानयोगकी अपेक्षा विशेष मानती
है, कारणकी ज्ञानयोगके बिना तो कर्मयोग हो सकता है
(गीता ३ । २०), पर कर्मयोगके बिना ज्ञानयोग होना कठिन है (गीता
५ । ६) ।
गीता व्यवहारमें परमार्थकी कला बताती है, जिसमें
मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें रहते हुए तथा शास्त्रविहित सब तरहका व्यवहार करते हुए
भी अपना कल्याण कर सके ।
गीताकी दृष्टिमें मन लगाना कोई ऊँची चीज नहीं
है । गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है‒समता । दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है । जिसमें दूसरे सब
लक्षण आ जायँ और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती ।
गीताका अध्ययन करनेसे ऐसा मालूम देता है कि साधनकी
सफलतामें केवल भगवत्परायणता ही कारण है । अतः गीतामें भगवत्परायणतकी बहुत महिमा गायी
है ।
गीतामें भगवान्ने विविध युक्तियोंसे कर्मयोगका
सरल और सांगोपांग विवेचन किया है ।
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