।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
मोक्षदा एकादशी-व्रत (सबका), श्रीगीता-जयन्ती
श्रीमद्भगवद्गीताका प्रादुर्भाव


आज बड़ा ही आनन्दका दिवस है, जिस दिन गीताजी इसरूपसे प्रगट हुई है । वैसे तो गीताजी अनादी है; ‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्....’, ‘एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः.....’ (गीता ४ । १-२), ऐसे तो अनादिकालसे यह उपदेश आया है, पर इसरूपसे प्रगट हुआ है आजके दिन । जैसे हम भगवान्‌का जन्मदिन मनाते है‒रामनवमी, जन्माष्टमी तो भगवान् उसी दिन प्रगट हुये पर पहले नहीं थे, ऐसा नहीं है । ऐसे ही आजका दिन गीताजीका जन्मदिवस, प्रागट्य दिवस है ।

जब पाण्डवोंने बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास समाप्त होनेपर जब प्रतिज्ञाके अनुसार अपना आधा राज्य माँगा, तब दुर्योधनने आधा राज्य तो क्या, तीखी सूईकी नोक-जितनी जमीन भी बिना युद्धके देनी स्वीकार नहीं की । अतः पाण्डवोंने माता कुन्तीकी आज्ञाके अनुसार युद्ध स्वीकार कर लिया ।

निश्चित समयके अनुसार कुरुक्षेत्रमें युद्ध आरम्भ हुआ । दसवें दिन पितामह भीष्म अर्जुनके बाणोंके द्वारा रथसे गिरा दिये गये, तब संजयने हस्तिनापुरमें आकर धृतराष्ट्रको यह समाचार सुनाया । महाभारतके भीष्मपर्वके चौबीसवें अध्यायतक संजयने युद्ध-सम्बन्धी बातें धृतराष्ट्रको सुनायी । पचीसवें अध्यायके आरम्भमें धृतराष्ट्र संजयसे पूछते है, वहाँसे श्रीमद्भगवद्गीताका प्रारम्भ होता है ।

जब भगवान्‌ने भीष्म और द्रोणके सामने रथ खड़ा करके अर्जुनसे कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहते है और उनको देखकर अर्जुनके भीतर छिपा हुआ मोह जाग्रत हो जाता है और युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मानते हुये बहुत तरहकी दलीलें करते है (गीता १ । १८‒३७) । यहाँतक कहते है कि मैं भिक्षावृत्तिसे निर्वाह कर लूँगा पर लोभके वशीभूत होकर युद्ध नहीं करूँगा और युद्धसे, कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको कहते है (गीता १ ४०‒४४) और आखिर बोलते-बोलते शोकाविष्ट होकर युद्धसे उपरत होकर बाणसहित धनुष्यका त्याग करके बैठ जाते है । भगवान्‌ने यह सोचा कि अर्जुनके बोलनेसे उनका शोक बाहर आ जाय, भीतरमें कोई शोक बाकी न रहे, तभी मेरे वचनोंका उसपर असर होगा । अतः भगवान् बीचमें कुछ नहीं बोले ।

गीताजीके पहले अध्यायके बीसवें लोक ‘अथः’ पदसे संजय भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप ‘भगवद्गीता’ का आरम्भ करते हैं । अठाहवें अध्यायके चौहत्तरवें श्लोकमें आये ‘इति’ पदसे यह संवाद समाप्त होता है । अर्जुनमें धर्मका बाना पहनकर जो कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आ गयी थी और युद्धसे उपराम होनेका निर्णय कर लिया । जो बुराई बुराईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा सुगम होता है । परन्तु जो बुराई अच्छाईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा कठीन होता है । भगवान्‌ने अर्जुनसे युद्ध नहीं कराया है, प्रत्युत उनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है । युद्ध तो अर्जुनको कर्तव्यरूपसे स्वतः प्राप्त हुआ था ।

भगवान्‌ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रका कल्याण करनेके लिये यह अलौकिक उपदेश दिया है । खास करके उनके सामने आनेवाले हम-जैसे कलियुगी जीव थे । उनको भगवान् जानते थे; नहीं बल्कि इसको भगवान्  ‘वेदाहं समतीतानी.....’(गीता ७ । २६) पदसे कहते है, मतलब कि हम उनके लिये वर्तमानमें है । संसारके अनेक शास्त्र, ग्रन्थ, वेद, उपनिषदोंरूप सागरमेंसे छोटी-सी राइके दानेके समानरूप ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ रूप अनमोल, अद्वितीय ग्रंथ प्रदान किया है । इस छोटे-से ग्रन्थमें भगवान्‌ने अपने हृदयके बहुत ही विलक्षण भाव भर दिये हैं, जिनका आजतक कोई पार नहीं पा सका और न पा ही सकता है ।

गीतामें भगवान्‌ने विविध युक्तियोंसे कर्मयोगका सरल और सांगोपांग विवेचन किया है ।