।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
गीता-मंथन


गीता मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी मानती है और डंकेकी चोटके साथ, खुले शब्दोंमें कहती है कि वर्तमानका दुराचारी-से-दुराचारी, पूर्वजन्मके पापोंके कारण नीची योनियोंमें जन्मा हुआ पापयोनि और चारों वर्णवाले स्त्री-पुरुष‒ये सभी भगवान्‌का आश्रय लेकर परमगातिको प्राप्त हो सकते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीताकी एक बहुत बड़ी विलक्षणता यह है कि वह किसी मतका खण्डन किये बिना ही उस विषयमें अपनी मान्यता प्रकट कर देती है ।

भगवद्गीतामें अपना उद्धार करनेकी ऐसी-ऐसी विलक्षण, सुगम और सरल युक्तियाँ बतायी गयी हैं, जिनको मनुष्यमात्र अपने आचरणोंमें ला सकता है ।

गीताकी शिक्षासे मनुष्यमात्रका प्रत्येक परिस्थितमें सुगमतासे कल्याण हो सकता है ।

एकान्तमें रहकर वर्षोंतक साधना करनेपर ऋषि-मुनियोंको जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति गीताके अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायगी । सिद्धि-असिद्धिमें सम रहकर निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करना ही गीताके अनुसार व्यवहार करना है ।

बहुत-से मनुष्य केवल स्थूलशरीरकी क्रियाओंको कर्म मानते हैं, पर गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है । गीताने शारीरिक, वाचिक और मानसिकरूपसे की गयी मात्र क्रियाओंको कर्म माना है‒‘शरीरवाङ्‌मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः (गीता १८ । १५)

स्वाभाविक कर्मोंके प्रवाहाको मिटा तो नहीं सकते, पर उसको बदल सकते हैं, अर्थात् उसको राग-द्वेषरहित बना सकते हैं‒यह गीताका मार्मिक सिद्धान्त है ।

गुरु बनाना या बनना गीताका सिद्धान्त नहीं है । मनुष्य आप ही अपना गुरु है । इसलिये उपदेश अपनेको ही देना है । जब सब कुछ परमात्मा ही हैं (वासुदेवः सर्वम्), तो फिर दूसरा गुरु कैसे बने और कौन किसको उपदेश दे ?

निष्पक्ष विचार करनेसे ऐसा दीखता है कि गीतामें ब्रह्मकी मुख्यता नहीं हे, प्रत्युत ईश्वरकी मुख्यता है ।

गीता फलासक्तिके त्यागपर जितना जोर देती है, उतना ओर किसी साधनपर नहीं । दूसरे साधनोंका वर्णन करते समय भी कर्मफलत्यागको उनके साथ रखा गया है ।

एक विलक्षण बात है कि गीतामें जो सत्वगुण कहा है, वह संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके परमात्माकी तरफ ले जानेवला होनेसे ‘सत्‌’ अर्थात् निर्गुण हो जाता है ।

गीता रजोगुणको क्रियात्मक मानते हुए भी मुख्यरूपसे रागात्मक ही मानती है‒‘रजो रागात्मकं विद्धि’ (१४ । ७) । वास्तवमें देखा जाय तो ‘राग’ बाँधनेवाला है, क्रिया नहीं ।

गीताके अनुसार दूसरेके हितके लिये कर्म करना ‘यज्ञ’ है, हरदम प्रसन्न रहना ‘तप’ हे और उसकी चीज उसीको दे देना  ‘दान’ हे । स्वार्थबुद्धिपूर्वक अपने लिये यज्ञ-तप-दान करना आसुरी अथवा राक्षसी स्वभाव है ।


अगर मरणासन्न व्यक्तिकी गीतामें रुचि हो तो उसको गीताका आठवाँ अध्याय सुनाना चाहिये; क्योंकि इस अध्यायमें जीवकी सद्गतिका विशेषतासे वर्णन आया है । इसको सुननेसे उसको भगवान्‌की स्मृति हो जाती है ।