।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, मंगलवार

गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(२५) तस्मात्सर्वेषु कालेषु (८ । ७,२७)‒आठवें अध्यायके सातवें श्लोकमें सब समय भगवान्‌को याद रखनेकी बात है; क्योंकि युद्ध अर्थात् कर्त्तव्य-कर्म तो सब समय नहीं हो सकता, पर भगवान्‌का स्मरण सब समय हो सकता है । सत्ताईसवें श्लोकमें अनुकूल-प्रतिकूल देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें सम रहनेकी बात है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलतामें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि नहीं होने चाहिये; किंतु सम रहना चाहिये । समता परमात्माका स्वरूप है; अतः समरूप परमात्माकी आराधना भी समता ही है–समत्व-माराधनमच्युतस्य’ (विष्णुपुराण १ । १७ । ९०) । तात्पर्य है कि चाहे सब समयमें भगवान्‌का स्मरण करें, चाहे योग अर्थात् समतासे समरूप परमात्माकी आराधना करें, एक ही बात है ।

(२६) मय्यर्पितमनोबुद्धिः’ (८ । ७; १२ । १४)‒यह पद आठवें अध्यायके सातवें श्लोकमें साधक भक्तके लिये और बारहवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तके लिये आया है । साधक भक्त तो अपने मन और बुद्धिको भगवान्‌के अर्पित करता है, पर सिद्ध भक्तके मन और बुद्धि स्वतः-स्वाभाविक भगवान्‌के अर्पित होते हैं‒यह अन्तर बतानेके लिये यह चरण दो बार आया है । तात्पर्य है कि मनुष्यके पास बड़े-से-बड़े दो ही औजार हैं‒मन और बुद्धि । ये दोनों औजार जबतक जड़ता-(संसार-) में लगे रहते हैं, तबतक यह स्वयं इन मन-बुद्धिके साथ जड़तामें आबद्ध रहता है । परंतु जब इनका मुख भगवान्‌की तरफ हो जाता है अर्थात् इनमेंसे ममता छूट जाती है, तब स्वयं भगवान्‌के साथ अभिन्न हो जाता है ।

(२७) न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (८ । २१; १५ । ६)–आठवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें परमात्मविषयक वर्णनकी एकता करते हुए कहते हैं कि जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते उसीको परमधाम कहते हैं; और पंद्रहवें अध्यायके छठे श्लोकमें अपनी महिमाका वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके परमात्माकी शरण हो जाता है उसकी परम धामकी प्राप्ति हो जाती है, जहाँसे फिर लौटकर नहीं आना पड़ता । तात्पर्य है कि चाहे उस परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाय, चाहे उस परमात्माके परमधाममें चला जाय अर्थात् चाहे यहाँ जीते-जी परमात्माको प्राप्त हो जाय चाहे शरीर छोड़नेके बाद परमात्माके परमधाममें पहुँच जाय‒दोनों बातें एक ही हैं, दोनोंमें कोई फर्क नहीं है; क्योंकि दोनोमें प्रकृति और उसके कार्यसे सम्बन्ध छूट जाता है ।


(२८) पश्य मे योगमैश्वरम्’ (९ । ५ ११ । ८)‒पश्य’ क्रियाके दो अर्थ होते हैं‒जानना और देखना । नवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें बुद्धिसे जाननेकी बात आयी है कि सब कुछ भगवत्स्वरूप है; और ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें विराट्‌रूपको देखनेकी बात आयी है । गुरु, संत, भगवान् जना दें तो मनुष्य बुद्धिसे जान सकता है, पर भगवान्‌का दिव्य विराट्‌रूप तभी देखा जा सकता है, जब भगवान् कृपा करके नेत्रोंमें दिव्यता देते हैं । तात्पर्य है कि नवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें ज्ञानचक्षु’ का वर्णन है और ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें दिव्यचक्षु का वर्णन है ।
  
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे