(गत ब्लॉगसे आगेका)
तेरहवें अध्यायमें गुणोंका वर्णन संक्षेपसे हुआ है । अतः चौदहवें
अध्यायमें उनका विस्तारसे वर्णन करनेके लिये भगवान् बताते हैं कि सत्त्व,
रज और तम‒ये तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं (१४ । ५)
। इनमेंसे सत्त्वगुणका स्वरूप निर्मल, प्रकाशक तथा अनामय है,
रजोगुणका स्वरूप रागात्मक है और तमोगुणका स्वरूप मोहनात्मक है
। सत्त्वगुण सुख तथा ज्ञानके संगसे, रजोगुण कर्मकी आसक्तिसे और तमोगुण निद्रा,
आलस्य तथा प्रमादसे बाँधता है (१४ । ६‒८) । सत्त्वगुण सुखमें
लगाकर, रजोगुण कर्मोंमें लगाकर और तमोगुण ज्ञानको ढककर एवं प्रमादमें
लगाकर मनुष्यपर विजय करता है । इन तीनों गुणोंमेंसे एक बढ़ता है तो बाकी दो दब जाते
हैं । रजोगुण और तमोगुणको दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है,
सत्त्वगुण तथा तमोगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है तथा सत्त्वगुण
और रजोगुणको दबाकर तमोगुण बढ़ता है (१४ । ९-१०) ।
सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें प्रकाश और बुद्धिमें विवेककी जागृति हो जाय तो ये बढे़
हुए सत्त्वगुणके लक्षण हैं । अन्तःकरणमें लोभ,
कर्म करनेकी प्रवृत्ति,
नये-नये कर्म करना,
अशान्ति और स्पृहा उत्पन्न हो जाय तो ये बढ़े हुए रजोगुणके लक्षण
हैं । अन्तःकरणमें अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह आ जाय तो ये बढ़े हुए तमोगुणके लक्षण हैं (१४ ।
११‒१३) ।
मृत्युके समय सत्त्वगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मनुष्य
स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाता है, रजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मनुष्य मृत्युलोकमें मनुष्य
बनता है और तमोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मनुष्य पशु,
पक्षी आदि मूढ़ योनियोंमें पैदा होता है (१४ । १४-१५) ।
श्रेष्ठ कर्मोंका फल सात्त्विक तथा निर्मल होता है,
राजस कर्मका फल दुःख होता है और तामस कर्मका फल अज्ञान (मूढ़ता)
होता है (१४ । १६) । सत्त्वगुणसे ज्ञान, रजोगुणसे लोभ और तमोगुणसे प्रमाद,
मोह तथा मूढ़ता पैदा होती है (१४ । १७) । सत्त्वगुणमें स्थित
मनुष्य ऊर्ध्वलोकोंमें जाते हैं, रजोगुणमें स्थित मनुष्य मध्यलोक (मृत्युलोक) में ही रहते हैं
और तमोगुणमें स्थित मनुष्य अधोगतिमें जाते हैं (१४ । १८) ।
जब विचारशील मनुष्य इन तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता
नहीं देखता अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ और परिवर्तन गुणोंमें ही हो रहे हैं‒ऐसा दृढ़
बोध हो जाता है, तब उसे अपनेमें स्वतःसिद्ध अकर्तृत्वका,
असंगताका, निर्लिप्तताका अनुभव हो जाता है और वह भगवद्भावको प्राप्त हो
जाता है (१४ । १९) । देहके उत्पादक इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण करके जन्म-मरणसे रहित
हुआ वह मनुष्य अमरताका अनुभव करता है, जो कि स्वयंमें स्वतःसिद्ध है (१४ । २०) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
|