(गत ब्लॉगसे आगेका)
गुणातीत हुए अर्थात् अमरताको प्राप्त हुए मनुष्यमें सात्त्विकी,
राजसी अथवा तामसी वृत्तियोंके आने-जानेसे राग-द्वेष नहीं होते
। इतना ही नहीं, वह उदासीनकी तरह रहता है,
गुणोंसे विचलित नहीं होता तथा ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒ऐसा अनुभव करके अपनेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तनका अनुभव
नहीं करता (१४ । २२-२३) । यह बात तो ज्ञानयोगकी दृष्टिसे कही गयी । भक्तियोगकी दृष्टिसे
जब साधकका ध्येय, लक्ष्य केवल भगवान् ही रह जाते हैं,
तब वह स्वतः गुणोंसे उपराम (अतीत) होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र
हो जाता है (१४ । २६) ।
जैसे जलके द्वारा वृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं,
ऐसे ही सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंके द्वारा संसारवृक्षकी शाखाएँ नीचे,
मध्य और ऊपरके लोकोंमें फैली हुई हैं (१५ । २) । तात्पर्य है
कि गुणोंके संगसे ही यह जीव अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकमें जन्म लेता है । गुणोंके संगसे ही यह
भोक्ता बनता है, पर स्वयं निर्लिप्त ही रहता है‒इस बातको विवेकी मनुष्य ही जानते
हैं, अविवेकी मनुष्य नहीं (१५ । १०) । मनुष्योंकी स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा तीन
तरहकी होती है‒सात्त्विकी, राजसी और तामसी (१७ । २) । जिनकी जैसी श्रद्धा होती है,
वैसी ही उनकी निष्ठा होती है और निष्ठाके अनुसार ही उनकी प्रवृत्ति
होती है । सात्त्विक मनुष्य देवताओंका पूजन करते हैं,
राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसोंका पूजन करते हैं और तामस मनुष्य भूत-प्रेतोंका
पूजन करते हैं (१७ । ३-४) । अगर कोई मनुष्य पूजन न करता हो तो भोजनकी रुचिसे उसकी पहचान
हो सकती है । सात्त्विक मनुष्यको रसयुक्त,
स्निग्ध आदि भोजनके पदार्थ प्रिय लगते हैं,
राजस मनुष्यको अधिक कड़वे,
खट्टे आदि भोजनके पदार्थ प्रिय लगते हैं और तामस मनुष्यको अधपके,
रसरहित, अपवित्र आदि भोजनके पदार्थ प्रिय लगते हैं (१७ । ८‒१०) ।
फलेच्छारहित मनुष्यके द्वारा विधिपूर्वक सात्त्विक यज्ञ,
फलेच्छावाले मनुष्यके द्वारा विधिपूर्वक राजस यज्ञ और अविवेकी
मनुष्यके द्वारा विधि, मन्त्र, अन्न, दक्षिणा एवं श्रद्धासे रहित तामस यज्ञ होता है (१७ । ११‒१३)
। फलेच्छारहित मनुष्य सात्त्विक तप करते हैं,
आदर-सत्कार चाहनेवाले मनुष्य दम्भपूर्वक राजस तप करते हैं और
मूढ़ मनुष्य खुद कष्ट उठाकर भी दूसरोंको दुःख देनेके लिये तामस तप करते हैं (१७ । १७‒१९)
। देश, काल और पात्रके प्राप्त होनेपर प्रत्युपकारकी आशा न रखकर दिया
हुआ दान सात्त्विक है, प्रत्युपकार और फलका उद्देश्य रखकर दिया हुआ दान राजस है तथा
देश, काल और पात्रका विचार न करके अवज्ञापूर्वक दिया हुआ दान तामस है (१७ । २०‒२२) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
|