(गत ब्लॉगसे आगेका)
मोहपूर्वक नियत कर्मोंको छोड़ देना तामस त्याग है, शारीरिक क्लेशके
भयसे नियत कर्मोंको छोड़ देना राजस त्याग है, और आसक्ति एवं फलेच्छाको छोड़कर नियत कर्मोंको
करना सात्त्विक त्याग है (१८ । ७‒९) ।
सम्पूर्ण विभक्त (अलग-अलग) प्राणियोंमें विभागरहित एक अविनाशी
भावको देखना सात्त्विक ज्ञान है, सम्पूर्ण विभक्त प्राणियोंमें परमात्माको अलग-अलग
देखना राजस ज्ञान है, और पाञ्चभौतिक शरीरको ही अपना स्वरूप मानना तामस ज्ञान है (१८
। २०‒२२) । फलेच्छारहित मनुष्यके द्वारा कर्तृत्वाभिमान और राग-द्वेषसे रहित होकर किया
हुआ कर्म सात्त्विक है, फलेच्छावाले मनुष्यके द्वारा अहंकार अथवा परिश्रमपूर्वक किया
हुआ कर्म राजस है और परिणाम, हानि, हिंसा तथा अपनी सामर्थ्यको न देखकर मोहपूर्वक किया हुआ कर्म तामस है (१८ । २३‒२५)
। रागरहित, अहंकृतभावरहित, धृति और उत्साहसे युक्त तथा सिद्धि-असिद्धिमें
निर्विकार रहनेवाला कर्ता सात्त्विक है; रागी, फलेच्छावाला, लोभी, हिंसात्मक, अपवित्र
और हर्ष-शोकसे युक्त कर्ता राजस है और असावधान, अशिाक्षित, ऐंठ-अकड़वाला, जिद्दी, कृतघ्नी,
आलसी, विषादी और दीर्घसूत्री कर्ता तामस है (१८ । २६‒२८) ।
प्रवृत्ति-निवृत्ति, कर्तव्य-अकर्तव्य,
भय-अभय और बन्धन-मोक्षको ठीक जाननेवाली बुद्धि सात्त्विकी होती है; धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्यको ठीक-ठीक
न जाननेवाली बुद्धि राजसी होती है और अधर्मको धर्म तथा सम्पूर्ण बातोंको उल्टा माननेवाली
बुद्धि तामसी होती है (१८ । ३०‒३२) । समतापूर्वक मन, प्राण और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको
धारण करनेवाली धृति सात्त्विक है, फलेच्छा और आसक्तिपूर्वक धर्म, काम (भोग) और अर्थको
धारण करनेवाली धृति राजसी है और निद्रा, भय, शोक आदिको धारण करनेवाली धृति तामसी है
(१८ । ३३‒३५) ।
परमात्मविषयक बुद्धिसे पैदा
होनेवाला जो सुख सांसारिक आसक्तिके कारण पहले जहरकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह है, वह सुख सात्त्विक है । आरम्भमें अमृतकी
तरह और परिणाममें जहरकी तरह विषयों और इन्द्रियोंके संयोगसे उत्पन्न हुआ सुख राजस है
। आरम्भमें और परिणाममें मोहित करनेवाला, केवल निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न सुख तामस है
(१८ । ३७‒३९) ।
प्रकृतिसे उत्पन्न गुणोंके
द्वारा ही सबकी रचना की गयी है । इसलिये इस त्रिलोकीमें गुणोंसे रहित कोई भी वस्तु
और प्राणी नहीं है । स्वभावसे उत्पन्न हुए गुणोंके द्वारा ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारों वर्णोंके कर्मोंका
विभाग किया गया है (१८ । ४०-४१) । [*]
अठारहवें अध्यायके सैंतालीसवें
श्लोकमें आया ‘विगुणः’ शब्द भी तीनों गुणोंसे रहितका वाचक नहीं है, प्रत्युत सद्गुण-सदाचारोंकी कमीका वाचक
है ।[†]
‒इस प्रकार गीतामें भाव, गुणोंकी वृत्तियाँ, श्रद्धा, पूजन, भोजन, यज्ञ, तप, दान, त्याग, ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख‒इन पन्द्रह रूपोंमें
गुणोंका वर्णन हुआ है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
[*] किसी एक वस्तुपर एक चोट मारनेसे दो टुकड़े
होते हैं, दो चोट मारनेपर तीन टुकड़े होते हैं और तीन चोट मारनेपर चार टुकड़े
होते हैं । ऐसे ही तीन गुणोंसे चार ही वर्णोंका विभाग होता है ।
[†] गीतामें जिन अध्यायोंमें तथा जिन श्लोकोंमें
गुणोंका वर्णन आया है, उन्हींका यहाँ संकेत किया
गया है ।
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