।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

गुरु-शिष्यके सम्बन्धसे ही ज्ञान होता है‒ऐसी बात देखनेमें नहीं आती । कारण कि जिन लोगोंने गुरु बना लिया है, गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार कर लिया है; उन सबको ज्ञान हो गया हो‒ऐसा देखनेमें नहीं आता । परंतु तीव्र जिज्ञासा होनेपर ज्ञान हो जाता है‒ऐसा देखनेमें, सुननेमें आता है । तीव्र जिज्ञासुके लिये गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । तात्पर्य है कि जबतक स्वयंकी तीव्र जिज्ञासा नहीं होती, तबतक गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करनेपर भी ज्ञान नहीं होता और तीव्र जिज्ञासा होनेपर साधक गुरु-शिष्यके सम्बन्धके बिना ही किसीसे भी ज्ञान ले लेता है । तीव्र जिज्ञासावाले साधकको भगवान् स्वप्नमें भी शुकदेव आदि (जो पहले हो गये हैं) सन्तोंसे मन्त्र दिला देते हैं ।

शिष्य बननेपर गुरुके उपदेशसे ज्ञान हो ही जायगा‒यह नियम नहीं है । कारण कि उपदेश मिलनेपर भी अगर स्वयंकी जिज्ञासा, लगन नहीं होगी तो शिष्य उस उपदेशको धारण नहीं कर सकेगा । परन्तु तीव्र जिज्ञासा, श्रद्धा-विश्वास होनेपर मनुष्य बिना किसी सम्बन्धके ही उपदेशको धारण कर लेता है‒‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ (४ । ३९) । तात्पर्य है कि ज्ञान स्वयंकी जिज्ञासा, लगनसे ही होता है, गुरु बनानेमात्रसे नहीं ।

अगर किसीको असली गुरु मिल भी जाय, तो भी वह स्वयं उनको गुरु, महात्मा मानेगा, स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करेगा, तभी उससे लाभ होगा । अगर वह स्वयं श्रद्धा-विश्वास न करे तो साक्षात् भगवान्‌के मिलनेपर भी उसका कल्याण नहीं होगा । दुर्योधनको भगवान्‌ने उपदेश दिया और पाण्डवोंसे सन्धि करानेके लिये बहुत समझाया, फिर भी उसपर कोई असर नहीं पड़ा । उसके माने बिना भगवान्‌ भी कुछ नहीं कर सके । तात्पर्य है कि खुदके मानने, स्वीकार करनेसे ही कल्याण होता है । अतः गीता अपने-आपसे ही अपने-आपका उद्धार करनेकी प्रेरणा  करती है‒ ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (गीता ६/५) ।

                   ज्ञानमार्गमें तो गीताने आचार्य आदिकी उपासना बतायी है, पर कर्मयोग और भक्तिमार्गमें गुरु आदिकी आवश्यकता नहीं बतायी । कारण कि जब किसी घटना, परिस्थिति आदिसे ऐसी भावना जाग्रत्‌ हो जाय कि ‘स्वार्थभावसे कर्म करनेपर अभावकी पूर्ति नहीं होती; स्वार्थभाव रखना पशुता है, मानवता नहीं है’, तब मनुष्य स्वार्थभावका, कामनाका त्याग करके सेवा-परायण हो जाता है । सेवा-परायण होनेसे उस कर्मयोगीको अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है‒ ‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’ (गीता ४/३८) ।

                   कोई एक विलक्षण शक्ति है, जिससे सम्पूर्ण संसारका संचालन हो रहा है । उस शक्तिपर जब मनुष्यका विश्वास हो जाता है, तब वह भगवान्‌की तरफ चल पड़ता है । भगवान्‌में लगे हुए ऐसे भक्तके अज्ञान-अन्धकारका नाश भगवान्‌ स्वयं कर देते है (गीता १०/११); और भगवान्‌ स्वयं उसका मृत्यु-संसार-सागरसे उद्धार करनेवाले बन जाते हैं (गीता १२/७) ।

   (अपूर्ण)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे