(गत ब्लॉगसे आगेका)
गुरु-शिष्यके सम्बन्धसे ही ज्ञान होता है‒ऐसी
बात देखनेमें नहीं आती । कारण कि जिन लोगोंने गुरु बना लिया है, गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार कर लिया है; उन सबको ज्ञान हो गया हो‒ऐसा देखनेमें नहीं आता । परंतु तीव्र जिज्ञासा होनेपर
ज्ञान हो जाता है‒ऐसा देखनेमें, सुननेमें आता है । तीव्र जिज्ञासुके
लिये गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । तात्पर्य
है कि जबतक स्वयंकी तीव्र जिज्ञासा नहीं होती, तबतक गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करनेपर भी ज्ञान नहीं होता और तीव्र जिज्ञासा होनेपर
साधक गुरु-शिष्यके सम्बन्धके बिना ही किसीसे भी ज्ञान ले लेता
है । तीव्र जिज्ञासावाले साधकको भगवान् स्वप्नमें भी शुकदेव आदि (जो पहले हो गये हैं) सन्तोंसे मन्त्र दिला देते हैं ।
शिष्य बननेपर गुरुके उपदेशसे ज्ञान
हो ही जायगा‒यह नियम नहीं है । कारण कि उपदेश मिलनेपर भी अगर स्वयंकी जिज्ञासा, लगन नहीं
होगी तो शिष्य उस उपदेशको धारण नहीं कर सकेगा । परन्तु तीव्र जिज्ञासा, श्रद्धा-विश्वास होनेपर मनुष्य बिना किसी सम्बन्धके ही उपदेशको धारण कर लेता है‒‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ (४ । ३९) । तात्पर्य
है कि ज्ञान स्वयंकी जिज्ञासा, लगनसे ही होता है, गुरु बनानेमात्रसे नहीं ।
अगर किसीको असली गुरु मिल भी जाय, तो भी वह स्वयं उनको गुरु, महात्मा मानेगा,
स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करेगा, तभी उससे लाभ होगा । अगर वह स्वयं
श्रद्धा-विश्वास न करे तो साक्षात् भगवान्के मिलनेपर भी उसका कल्याण नहीं होगा । दुर्योधनको भगवान्ने उपदेश दिया और पाण्डवोंसे सन्धि
करानेके लिये बहुत समझाया, फिर भी उसपर कोई
असर नहीं पड़ा । उसके माने बिना भगवान् भी कुछ नहीं कर सके । तात्पर्य है
कि खुदके मानने, स्वीकार करनेसे ही कल्याण होता है । अतः
गीता अपने-आपसे ही अपने-आपका उद्धार करनेकी प्रेरणा करती है‒ ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’
(गीता ६/५) ।
ज्ञानमार्गमें
तो गीताने आचार्य आदिकी उपासना बतायी है, पर कर्मयोग और भक्तिमार्गमें गुरु आदिकी
आवश्यकता नहीं बतायी । कारण कि जब किसी घटना, परिस्थिति आदिसे ऐसी भावना
जाग्रत् हो जाय कि ‘स्वार्थभावसे कर्म करनेपर अभावकी पूर्ति नहीं होती;
स्वार्थभाव रखना पशुता है, मानवता नहीं है’, तब मनुष्य स्वार्थभावका, कामनाका
त्याग करके सेवा-परायण हो जाता है । सेवा-परायण होनेसे
उस कर्मयोगीको अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है‒ ‘तत्स्वयं
योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’ (गीता ४/३८) ।
कोई एक विलक्षण
शक्ति है, जिससे सम्पूर्ण संसारका संचालन हो रहा है । उस शक्तिपर जब मनुष्यका
विश्वास हो जाता है, तब वह भगवान्की तरफ चल पड़ता है । भगवान्में लगे हुए ऐसे भक्तके अज्ञान-अन्धकारका नाश
भगवान् स्वयं कर देते है (गीता १०/११); और भगवान् स्वयं उसका
मृत्यु-संसार-सागरसे उद्धार करनेवाले बन जाते हैं (गीता १२/७) ।
(अपूर्ण)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे
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