।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒गुरुका पूजन करना, ध्यान करना, उनकी जूठन लेना, चरणरज लेना, चरणामृत लेना कहाँतक उचित है ?

उत्तर‒ये सब भगवान्‌के प्रति ही करना चाहिये; जैसे‒भगवान्‌के ही विग्रहका पूजन करे; भगवान्‌का ही ध्यान करे; भगवान्‌को ही भोग लगाया हुआ प्रसाद ग्रहण करे, जहाँ भगवान्‌ने लीला की है, वहींकी रजका आदर करे; शालग्राम आदिका ही चरणामृत ले, भगवान्‌के चरणोंसे निकली हुई गंगाजीका ही आदर करे । तात्पर्य है कि सबसे महान्‌ एवं पवित्र भगवान्‌ ही हैं । उनके समान कोई है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । अतः उनके शरण होकर उनका ही पूजन, ध्यान आदि करना चाहिये ।

भगवान्‌का शरीर तो चिन्मय और अविनाशी होता है, पर महात्माका शरीर पाँचभौतिक होनेके कारण जड़ और विनाशी होता है । भगवान्‌ सर्वव्यापी हैं; अतः वे चित्रमें भी हैं । परन्तु महात्माकी सर्वव्यापकता (शरीरसे अलग) भगवान्‌की सर्वव्यापकताके अन्तर्गत होती है । एक भगवान्‌के अन्तर्गत सम्पूर्ण महात्मा हैं; अतः भगवान्‌की पूजा करनेसे सम्पूर्ण महात्माओंकी पूजा हो जाती है । अगर महात्माओंके हाड़-मांसमय शरीरोंकी तथा उनके चित्रोंकी पूजा होने लगे तो इससे भगवान्‌की पूजामें बाधा लगेगी, जो महात्माओंके सिद्धान्तसे विरुद्ध है । कारण कि महात्मा संसारमें लोगोंको भगवान्‌की ओर लगानेके लिये आते हैं, अपनी ओर लगानेके लिये नहीं । जो लोगोंको अपनी ओर (अपनी पूजा, ध्यान आदिमें) लगाता है, वह तो पाखण्डी होता है ।

वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो शरीर मल-मूत्र पैदा करनेकी एक मशीन ही है । इसको बढ़िया-से-बढ़िया भोजन खिला दो तो वह मल बनकर निकलेगा और बढ़िया-से-बढ़िया शर्बत पीला दो तो वह मूत्र बनकर निकलेगा ! जबतक प्राण हैं, तबतक तो यह मल-मूत्र पैदा करनेकी मशीन है और प्राण निकल जानेके बाद यह मुर्दा है । वास्तवमें तो यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्त्व (चेतन जीवात्मा) है, उसका चित्र लिया ही नहीं जा सकता । चित्र उस शरीरका लिया जाता है, जो प्रतिक्षण बदल रहा है, नष्ट हो रहा है । अतः शरीर भी चित्र लेनेके बाद वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेनेके समय था । इसलिये चित्रकी पूजा असत्‌ (नाशवान्‌)-की ही पूजा हुई । शरीरके चित्रमें प्राण नहीं रहते, इसलिये शरीरका चित्र मुर्देका भी मुर्दा हुआ ! हम जिस मनुष्यको महात्मा मानते हैं, वह अपने शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेसे ही महात्मा है, शरीरसे सम्बन्ध रहनेके कारण नहीं । महात्मा कभी शरीरमें सीमित होता ही नहीं । अतः उनके अविनाशी सिद्धान्तों और वचनोंपर ही श्रद्धा होनी चाहिये, नाशवान्‌ शरीर या नामपर नहीं । नाशवान्‌ शरीर और नाममें तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । अतः भगवान्‌के अविनाशी, दिव्य, अलौकिक विग्रहकी पूजा, ध्यान आदिको छोड़कर नाशवान्‌, भौतिक शरीरोंकी पूजा, ध्यान आदि करनेसे न केवल अपना जीवन निरर्थक होता है, प्रत्युत अपने साथ महान्‌ धोखा भी होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे