।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
श्रीकालभैरवाष्टमी

गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

......और वहाँ (१८ । ६५में) भगवत्प्राप्तिमें केवल भगवत्कृपा ही हेतु है । कारण कि भगवान्‌ने पहले (१८ । ५७में) मच्चित्तः सततं भव’ कह दिया, पर उस बातको अर्जुनने स्वीकार नहीं किया तो भगवान्‌ने अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’ (१८ । ५८) कहकर अर्जुनको धमकाया कि यह तेरा अहंकारका आश्रय है, जिससे तू मेरी बात नहीं सुन रहा है । जब भगवान्‌ने साफ कह दिया कि तू जैसी मरजी आये, वैसा कर’ (१८ । ६३), तब अर्जुनके मनमें धक्का लगा । अतः अर्जुनके भीतर कुछ पुरुषार्थका अभिमान था, जो भगवत्कृपासे नष्ट हुआ । इसलिये भगवान्‌ने कहा‒मन्मना भव मद्भक्तः....प्रियोऽसि मे’ (१८ । ६५) तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर । ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त हो जायगा‒यह मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। तात्पर्य है कि वहां (९ । ३४ में) अर्जुनके भीतर कुछ पुरुषार्थका अभिमान था, जो यही (१८ । ६ में) नष्ट हो गया ।

(३२) शृणु मे परमं वचः’ (१० । १; १८ । ६४) ये पद दोनों ही बार भक्तिके विषयमें आये हैं । दसवें अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान्‌ने परम वचन कहकर अपना महत्त्व, प्रभाव, सामर्थ्य, ऐश्वर्य सुननेके लिये आज्ञा दी है और अठारहवें अध्यायके चौसठ श्लोकमें परम वचन कहकर अपने शरण होनेके लिये आज्ञा दी है । तात्पर्य है कि भगवान्‌ने यहाँ (१० । १में) अपनी तरफसे ही बात कही, पर वह अर्जुनको जँची नहीं; और वहाँ (१८ । ६४में) अर्जुन विशेषतासे भगवान्‌के सम्मुख हो गये अर्थात् बात अर्जुनको जँच गया ।

(३३) दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ (१० । १६, १९)‒दसवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें तो अर्जुनने भगवान्‌से अपनी दिव्य विभूतियोंको संपूर्णतासे कहनेकी प्रार्थना की है और उन्नीसवें श्लोकमें भगवान् अर्जुनकी प्रार्थनाको स्वीकार करते हुए कहते हैं कि तू मेरी जिन दिव्य विभूतियोंको सुनाना चाहता है, उनको मैं संक्षेपसे कहूँगा । तात्पर्य है कि विभूति और योगको जाननेसे भगवान्‌में अविकम्प भक्तियोग होनेकी बात सुनकर अर्जुनने कह दिया कि आप अपनी सब-की-सब दिव्य विभूतियाँ कह दीजिये (१० । १६); क्योंकि अर्जुनका ध्यान भगवान्‌की विभूतियोंकी अनन्तताकी तरफ नहीं था । परन्तु भगवान्‌ तो अपनी विभूतियोंकी अनन्तताको जानते हैं; अतः भगवान् अपनी दिन विभूतियोंको संक्षेपसे कहनेकी बात कहते हैं । विभूतियोंको दिव्य कहनेका तात्पर्य है कि साधकको भगवान्‌के द्वारा कही हुई विभूतियोंको दिव्य अर्थात् भगवत्स्वरूप ही मानना चाहिये, क्योंकि विभूतियोंको भगवत्स्वरूप मानना ही दिव्यता है और संसारके रूपमें देखना ही अदिव्यता है, लौकिकता है ।
  
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे