।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(३४) त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ (११ । १८ ३८) ग्यारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें तो इन पदोंसे देवरूपमें विराट् भगवान्‌की स्तुति की गयी है और अड़तीसवें श्लोकमें अत्युग्ररूपमें विराट् भगवान्‌की स्तुति की गयी है । तात्पर्य है कि जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंकी आकृति, माप, तौल, उपयोग और नाम अलग-अलग होनेपर भी सुनारकी दृष्टि केवल सोनेपर ही रहती है, ऐसे ही भगवान् सौम्यरूप, उग्ररूप, अत्युग्ररूप, संसाररूप आदि किसी भी रूपसे हों, पर भक्तकी दृष्टि एक भगवान्‌पर ही रहनी चाहिये ।

(३५) प्रसीद देवेश जगन्निवास’ (११ । २५, ४५)‒ग्यारहवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें तो भगवान्‌के अत्युग्र (अत्यन्त भयानक) विराट्‌रूपको देखकर अर्जुन भयभीत हो जाते हैं और भगवान्‌से प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करते हैं; ओर पैतालीस श्लोकमें अर्जुन भयभीत और हर्षित होते हुए भगवान्‌से विष्णुरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करते हैं ।

(३६) ‘सर्वकर्मफलत्यागम्’ (१२ । ११; १८ । २)‒बारहवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें तो भगवान्‌ने सम्पूर्ण कर्मोंके फलका त्याग करनेको भक्तियोगका एक साधन बताया और अठारहवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें दूसरोंके मतमें सम्पूर्ण कर्मोंके फलका त्याग बताया । तात्पर्य है कि बारहवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें तो यह पद सम्पूर्ण कर्म और उनके फल‒दोनोंमें आसक्तिका त्याग करनेके लिये आया है; क्योंकि यह भगवान्‌का मत है (१८ । ६), पर अठारहवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें यह पद केवल समार्ण कर्मोंके फलकी इच्छाका त्याग करनेके लिये आया है; क्योंकि यह दूसरे विद्वानोंका मत है ।

(३७) यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ (१२ । १४, १६)‒ ये पद दोनों जगह सिद्ध भक्तोंके लिये आये हैं । बारहवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें तो भगवान्‌की निर्भरता विशेष है और सोलहवें श्लोकमें संसारसे उपरामता विशेष है । तात्पर्य है कि भक्तमें ये दोनों ही होने चाहिये ।

(३८) सर्वारम्भपरित्यागी’ (१२ । १६; १४ । २५)‒यह पद बारहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें तो सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आया है और चौदहवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें गुणातीतके लक्षणोंमें आया है । तात्पर्य है कि भगवद्भक्त और गुणातीत‒दोनोंका सिद्धावस्थामें अन्तर नहीं होता; क्योंकि भगवान्‌में अनुराग होनेपर संसारका त्याग स्वतः होता है और संसारका त्याग होनेपर स्वरूपमें स्थिति स्वतः होती है ।

(३९) न शोचति न काङ्क्षति’‒(१२ । १७; १८ । ५४)‒ये पद बारहवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तके लिये आये हैं अर्थात् जो भक्त भगवन्निष्ठ हो जाता हैं उसको हर्ष-शोक नहीं होते । अठारहवें अध्यायके चौवनवें श्लोकमें ये पद ब्रह्मभूत अवस्थाको प्राप्त सांख्ययोगीके लिये आये हैं अर्थात् जो सांख्ययोगी अपने मार्गपर ठीक आरूढ़ हो जाता है, जिसका विवेक जाग्रत हो जाता है, उसको हर्ष-शोक नहीं होते । तात्पर्य है कि भक्त और सांख्ययोगी‒दोनोंमें ही सांसारिक पदार्थोंकी महत्ता न होनेसे हर्ष-शौक, राग-द्वेष नहीं होते ।
  
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे