एक बातपर आप विशेष ध्यान दें और उसको ठीक तरहसे समझ लें
। गरमी पड़े तो आपपर गरमीका असर पड़ता है और सरदी पड़े तो सरदीका असर पड़ता है । असर पड़नेपर
भी क्या आप यह मानते हो कि मेरेमें गरमी है या मेरेमें सरदी है ? मेरेमें सरदी-गरमी नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक सरदी-गरमीका असर पड़ता है । ऐसे ही आपपर राग-द्वेषका आगन्तुक असर पड़ता है; परन्तु आप कहते हो कि मेरेमें राग-द्वेष हैं
! यह बहुत बड़ी गलती है । भगवान् साफ कहते
हैं‒
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय
शीतोष्णसुखदुखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व
भारत ॥
(गीता २ ।
१४)
‘हे कुन्तीनन्दन ! इन्द्रियोंके
जो विषय हैं, वे तो शीत‒अनुकूलता और उष्ण‒प्रतिकूलताके द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं । वे आने-जानेवाले और अनित्य हैं । हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! उनको
तुम सहन करो ।’
इस श्लोकमें भी भगवान्ने ‘शीत’ और ‘उष्ण’
शब्द दिये हैं । शीतका भी असर पड़ता है और उष्णका भी असर पड़ता है,
पर आपमें शीत और उष्णता नहीं है । ये आने-जानेवाले
और अनित्य हैं, पर आप ज्यों-के-त्यों रहनेवाले और नित्य हो‒‘नित्यः
सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’ (गीता
२ । २४) । इस बातको आप गहरा उतरकर समझो । यह कोई तमाशा
नहीं है । बहुत ही मार्मिक और तत्काल कल्याण करनेवाली सच्ची
बात है ।
अगर आपमें राग है तो वह हरदम रहना चाहिये अर्थात् आप रहोगे
तो राग रहेगा,
आप नहीं रहोगे तो राग नहीं रहेगा । अगर आपमें द्वेष है तो आप रहोगे तो
द्वेष रहेगा, आप नहीं रहोगे तो द्वेष नहीं रहेगा । आप तो रहते हो, पर राग-द्वेष रहते नहीं, आते-जाते हैं, तो फिर ये आपमें कहाँ हैं ?
श्रोता‒‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ भी तो गीता बोल रही है महाराजजी !
स्वामीजी‒वह भी हो जायगा । अब विवाह हुआ तो छोरा-छोरी अभी कैसे हो जायँगे
? पहले ‘विवाह हो गया’‒इस
बातको मान तो लो, फिर छोरा-छोरी ही नहीं,
पोता-पोती भी हो जायँगे ! इसमें तो समय भी लगेगा, पर इस बातको माननेसे समय नहीं
लगेगा । केवल तमाशेकी तरह मान लेनेकी बात मैं नहीं कहता हूँ
। मैं जो बात कहता हूँ, उसका
आप अनुभव करो । राग-द्वेष हमारेमें
हरदम रहते हैं, यह आपने कैसे, किस आधारपर
माना ? बताओ । मैंने यह बताया कि शीत-उष्णका
असर पड़ता है तो आपमें शीत-उष्ण रहते हैं क्या ?
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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