।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
राग-द्वेषसे रहित स्वरूप


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताराग-द्वेषका आना-जाना बन्द हो जायइसका भी कोई उपाय है ?

स्वामीजीयह हो जायगा । पहले विवाह हो जाय, फिर बेटा हो जायगा, पोता हो जायगा, पड़पोता हो जायगा; सब हो जायगा । अगर आप स्वीकार कर लो कि राग-द्वेष हमारेमें नहीं हैं तो इतनी भी देरी नहीं लगेगी । कारण कि बेटा-पोता तो पैदा होंगे; उसमें समय लगेगा । परन्तु इसमें समय नहीं लगेगा; क्योंकि परमात्मा पैदा होनेवाले नहीं हैं, वे तो सदा मौजूद हैं । पैदा होनेवाले तो राग-द्वेष हैं । राग-द्वेषको आदर देनेसे ही परमात्माका अनुभव नहीं हो रहा है । इसलिये कम-से-कम यह बात तो मान लो कि ये हमारेमें नहीं हैं, आगन्तुक हैं । अपना जो स्वरूप है वह सत्तारूप है । सत्तामात्रमें कभी राग-द्वेष होते ही नहीं ।

श्रोताबात तो ठीक है कि ये आगन्तुक हैं ।

स्वामीजीयों हाँ-में-हाँ नहीं मिलाना है । एकान्तमें बैठकर आप इसका अनुभव करो कि बात ठीक है ये आते-जाते रहते हैं और मैं निरन्तर रहता हूँ ।

श्रोताऐसा स्पष्ट अनुभव होता है कि ये हमारेसे अलग हैं ।

स्वामीजीइस अनुभवका आदर करो, असरका आदर मत करो अन्नदाता ! इतना कहना मेरा मान लो कि असरको महत्त्व मत दो, प्रत्युत इस बातको महत्त्व दो कि ये मेरेसे अलग हैं ।

श्रोतामार तो पड़ जाती है न महाराजजी ?

स्वामीजीमैं कहता हूँ कि पड़ने दो । बचपनमें पढ़ाई बहुत बुरी लगती थी, पर बैठे-बैठे पढ़ाई हो गयी कि नहीं ? एक दिन वह था, जब पता नहीं लगता था कि दूसरा क्या कह रहा है, पर आज मैं आपको पढ़ानेको तैयार हूँ !

श्रोतास्वामीजी ! आपने बताया कि पदार्थ तो आने-जानेवाले हैं, लेकिन उनका सम्बन्ध स्वयंमें है !

स्वामीजीसम्बन्ध माना है बाबा, है नहीं ! मैंने कभी नहीं कहा कि सम्बन्ध स्वयंमें है । मैंने कहा है कि सम्बन्ध आपने माना है । जो माना है उसको आप छोड़ो । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे