।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
राग-द्वेषसे रहित स्वरूप


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताइन आने-जानेवाले पदार्थोंसे स्वयंका जोर अधिक होता है क्या  ?

स्वामीजीआने-जानेवाले पदार्थोंका जोर नहीं है, आपकी मान्यताका जोर है । आपने मान लिया तो अब इसको ब्रह्माजी भी नहीं छुड़ा सकते । किसी सन्तकी, गुरुकी ताकत नहीं कि छुड़ा सके । आपने पकड़ लिया तो वे कैसे छुड़ा देंगे ? आपकी मान्यताको ढीली करनेके लिये कहता हूँ कि ये आगन्तुक हैं, आप आगन्तुक नहीं हो, फिर ये आपके साथी कैसे हुए ? इनको आप अपनेमें क्यों मानते हो ? कृपा करके इनको अपनेमें मत मानो । क्या आपको दया नहीं आती ? एक भिक्षुक आपसे बात कह रहा है, उसपर दया तो आनी चाहिये ! आप गृहस्थोंसे कोई साधु टुकड़ा माँगता है तो उसको देते हो कि नहीं ? ऐसे ही मेरेको भी टुकड़ा दे दो, इतनी बात मान लो कि राग-द्वेष हमारेमें नहीं हैं ! इसमें शंका सम्भव ही नहीं है; क्योंकि दो और दो चार ही होते हैं । मैं यह चाहता हूँ कि आप इस बातके पीछे पड़ जाओ । तत्काल भगवत्प्राप्ति जिनको होती है, हो ही जाती है । आपकी ऐसी इच्छा ही कहाँ है ? इस बातको समझनेके लिये इतना परिश्रम ही कहाँ है ? मेरेको आप क्षमा कर देना, मेरेमें जितनी लगन है, उतनी लगन आपमें नहीं है, जबकि आपमें लगन ज्यादा होनी चाहिये । मैंने कल कहा, आज कहा और फिर कहनेको तैयार हूँ ! मेरेसे रातमें पूछो, दिनमें पूछो, सुबहको पूछो, शामको पूछो; रात्रिमें मेरेको नींदसे उठाकर पूछो, मैं नाराज नहीं होऊँगा । मैं तो निहाल हो जाऊँगा । जैसे कोई बड़ा ग्राहक मिलनेसे दुकानदार राजी हो जाता है, उससे मैं कम राजी नहीं होता हूँ ! अतः मेरेपर कृपा करो, स्वयंपर कृपा करो, और नहीं समझमें आये तो पूछो ।

श्रोताराग-द्वेषके आनेसे निषिद्ध क्रिया हो जाती है !

स्वामीजीराग-द्वेषका असर पड़नेसे, उसके वशीभूत होनेसे निषिद्ध क्रिया हो जाती है तो भले ही हो जाय, पर राग-द्वेष हमारेमें नहीं हैंइसपर तो कायम रहो । भले ही निषिद्ध क्रिया हो, पर ये अपनेमें कैसे हुए ! अपनेमें हैं ही नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे