(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒इन आने-जानेवाले पदार्थोंसे स्वयंका जोर अधिक होता है
क्या ?
स्वामीजी‒आने-जानेवाले
पदार्थोंका जोर नहीं है, आपकी मान्यताका जोर है । आपने मान लिया तो अब इसको ब्रह्माजी
भी नहीं छुड़ा सकते । किसी सन्तकी, गुरुकी ताकत नहीं कि छुड़ा सके । आपने पकड़ लिया
तो वे कैसे छुड़ा देंगे ? आपकी मान्यताको ढीली
करनेके लिये कहता हूँ कि ये आगन्तुक हैं, आप आगन्तुक नहीं हो,
फिर ये आपके साथी कैसे हुए ? इनको आप अपनेमें क्यों
मानते हो ? कृपा करके इनको अपनेमें मत मानो । क्या आपको दया नहीं
आती ? एक भिक्षुक आपसे बात कह रहा है, उसपर
दया तो आनी चाहिये ! आप गृहस्थोंसे कोई साधु
टुकड़ा माँगता है तो उसको देते हो कि नहीं ? ऐसे ही मेरेको भी टुकड़ा दे दो, इतनी बात मान लो कि राग-द्वेष हमारेमें नहीं हैं ! इसमें शंका सम्भव ही
नहीं है; क्योंकि दो और दो चार ही होते हैं । मैं यह चाहता हूँ
कि आप इस बातके पीछे पड़ जाओ । तत्काल भगवत्प्राप्ति जिनको होती है, हो ही जाती है । आपकी ऐसी इच्छा ही कहाँ है ? इस बातको
समझनेके लिये इतना परिश्रम ही कहाँ है ? मेरेको
आप क्षमा कर देना, मेरेमें जितनी लगन
है, उतनी लगन आपमें नहीं है, जबकि आपमें लगन ज्यादा होनी चाहिये
। मैंने कल कहा, आज कहा और फिर कहनेको तैयार हूँ ! मेरेसे रातमें पूछो, दिनमें पूछो, सुबहको पूछो, शामको पूछो; रात्रिमें
मेरेको नींदसे उठाकर पूछो, मैं नाराज नहीं होऊँगा । मैं तो निहाल
हो जाऊँगा । जैसे कोई बड़ा ग्राहक मिलनेसे दुकानदार राजी हो जाता है, उससे मैं कम राजी नहीं होता हूँ ! अतः मेरेपर कृपा करो,
स्वयंपर कृपा करो, और नहीं समझमें आये तो पूछो
।
श्रोता‒राग-द्वेषके आनेसे निषिद्ध क्रिया हो जाती है
!
स्वामीजी‒राग-द्वेषका असर पड़नेसे, उसके वशीभूत होनेसे निषिद्ध क्रिया हो जाती है तो भले ही हो जाय, पर राग-द्वेष हमारेमें नहीं हैं‒इसपर तो कायम रहो । भले ही निषिद्ध क्रिया हो, पर ये अपनेमें कैसे हुए
! अपनेमें हैं ही नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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