।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒यदि गुरुके आचरण ठीक न हों तो क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒गुरुके आचरण कैसे ही क्यों न हों, यदि उस गुरुमें अपना दुर्भाव हो गया तो उसका त्याग ही अच्छा है; क्योंकि अब उस गुरुसे कल्याण हो जाय, यह बात नहीं है । जिसपर हमारा भाव नहीं रहा, उससे कल्याण कैसे होगा ? परन्तु उनके दिये हुए मन्त्रपर श्रद्धा हो तो उसका जप करते रहना चाहिये । अगर उसपर श्रद्धा न हो तो जिस मन्त्रपर श्रद्धा हो, उस मन्त्रका जप करना चाहिये और अपने हृदयको स्वच्छ, साफ रखना चाहिये ।

प्रश्न‒गुरुकी सेवा क्या है ?

उत्तर‒जिससे गुरुके मनकी प्रसन्नता हो और वे अपने हृदयकी बात प्रकट कर सकें, ऐसा विश्वासपात्र बनना ही गुरुकी सेवा है । तत्त्वका सच्चा जिज्ञासु गुरुकी सेवा करता है तो उसको तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । कैसे होती है‒इसको तो भगवान् ही जानें !

अपने-आपको खो देना अर्थात् अपने अहंभावको सर्वथा मिटा देना, अपना सब कुछ समर्पण कर देना, अपना कोई आग्रह न रखना, प्राणोंको भी अपना न समझना‒यही गुरुसेवाका तात्पर्य है ।

प्रश्न‒गुरुकृपा क्या है और वह कैसे प्राप्त होती है ?

उत्तर‒गुरुके चित्तकी प्रसन्नता ही गुरुकृपा है और वह गुरुके अनुकूल बननेसे प्राप्त होती है । गुरुकृपासे लाभ जरूर होता है । गुरुकृपा कभी निष्फल नहीं होती; क्योंकि वास्तवमें गुरुरूपसे परमात्मा ही हैं । केवल परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे ही गुरुकी सेवा, आज्ञापालन किया जाय तो वह वास्तवमें परमात्माकी ही सेवा है; अतः भगवान्की कृपासे उद्देश्यकी पूर्ति अवश्य होती है ।

प्रश्न‒गुरुकृपा और भगवत्कृपामें क्या अन्तर है ?

उत्तरदोनोंमें तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है । लौकिक दृष्टिसे वे दो दीखती हैं, पर वास्तवमें एक ही हैं ।

प्रश्न‒गुरुकी दीक्षा और शिक्षा क्या है ?

उत्तर‒जैसा गुरु बताये, वैसा नियम लेना, व्रत लेना  ‘दीक्षा’ है और उन नियमोंका पालन करना, उनके अनुसार अपना जीवन बनाना ‘शिक्षा’ है । पहले दीक्षा देनेके बाद ही शिक्षा दी जाती थी तो वह शिक्षा फलीभूत होती थी, बढ़िया होती थी । परन्तु आज दीक्षाके बिना ही शिक्षा दी जाती है, जिससे शिक्षा बढ़िया नहीं होती ।

प्रश्न‒गुरुदक्षिणा क्या है ?

उत्तर‒अपने-आपको सर्वथा गुरुके समर्पित कर देना अर्थात् ‘मैं’ और ‘मेरा’ न रखना ही गुरुदक्षिणा है । गुरुदक्षिणा देनेके बाद शिष्यको अपनी चिन्ता नहीं होती, प्रत्युत उसकी चिन्ता गुरुको ही होती है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे